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मृगापुत्र ]
भावनाबोध
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दुआ; पाँच समितियोंसे सुशोभित हुआ; त्रिगुप्तियोंसे गुप्त हुआ; बाह्य और अभ्यंतर द्वादश तपसे संयुक्त हुआ; ममत्वरहित हुआ; निरहंकारी हुआ; स्त्रियों आदिके संगसे रहित हुआ; और इसका समस्त प्राणियोंमें समभाव हुआ। आहार जल प्राप्त हो अथवा न हो, सुख हो या दुःख हो, जीवन हो या मरण हो, कोई स्तुति करो अथवा कोई निंदा करो, कोई मान करो अथवा अपमान करो, वह उन सबपर समभावी हुआ। वह ऋद्धि, रस और सुख इन तीन गर्वोके अहंपदसे विरक्त हुआ, मनदंड, वचनदंड और कायदंडसे निवृत्त हुआ; चार कषायोंसे मुक्त हुआ; वह मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यात्वशल्य इन तीन शल्योंसे विरक्त हुआ; सात महाभयोंसे भयरहित हुआ; हास्य और शोकसे निवृत्त हुआ, निदानरहित हुआ; राग द्वेषरूपी बंधनसे छूट गया; वाँछारहित हुआ; सब प्रकारके विलाससे रहित हुआ; और कोई तलवारसे काटे या कोई चंदनका विलेप करे उसपर समभावी हुआ। उसने पापके आनेके सब द्वारोंको बंद कर दिया; वह शुद्ध अंतःकरण सहित धर्मध्यान आदि व्यापारमें प्रशस्त हुआ; जिनेन्द्र-शासनके तत्वोंमें परायण हुआ, वह ज्ञानसे, आत्मचारित्रसे, सम्यक्त्वसे, तपसे और प्रत्येक महाव्रतकी पाँच पाँच भावनाओंसे अर्थात् पाँचों महावतोंकी पच्चीस भावनाओंसे, और निर्मलतासे अनुपमरूपसे विभूषित हुआ । अंतमें वह महाज्ञानी युवराज मृगापुत्र सम्यक् प्रकारसे बहुत वर्षतक आत्मचारित्रकी सेवा करके एक मासका अनशन करके सर्वोच्च मोक्षगतिमें गया।
प्रमाणशिक्षाः--तत्त्वज्ञानियोंद्वारा सप्रमाण सिद्धकी हुई द्वादश भावनाओंमें की संसारभावनाको दृढ़ करनेके लिये यहाँ मृगापुत्रके चरित्रका वर्णन किया गया है । संसार-अटवीमें परिभ्रमण करने में अनंत दुःख हैं यह विवेक-सिद्ध है; और इसमें भी जिसमें निमेषमात्र भी सुख नहीं ऐसी नरक अधोगतिके अनंत दुःखोंको युवक ज्ञानी योगीन्द्र मृगापुत्रने अपने माता पिताके सामने वर्णन किया है । वह केवल संसारसे मुक्त होनेका वीतरागी उपदेश देता है। आत्म-चारित्रके धारण करनेपर तप, परिषह आदिके बाह्य दुःखको दुःख मानना और महा अधोगतिके भ्रमणरूप अनंत दुःखको बहिर्भाव मोहिनीसे सुख मानना, यह देखो कैसी भ्रमविचित्रता है ! आत्म-चारित्रका दुःख दुःख नहीं, परन्तु वह परम सुख है, और अन्तमें वह अनंतसुख-तरंगकी प्राप्तिका कारण है। इसी तरह भोगविलास आदिका सुख भी क्षणिक और बहिश्य सुख केवल दुःख ही है, वह अन्तमें अनंत दुःखका कारण है; यह बात सप्रमाण सिद्ध करनेके लिये महाज्ञानी मृगापुत्रके वैराग्यको यहाँ दिखाया है। इस महाप्रभाववान, महायशोमान मृगापुत्रकी तरह जो साधु तप आदि और आत्म-चारित्र आदिका शुद्धाचरण करता है, वह उत्तम साधु त्रिलोकमें प्रसिद्ध और सर्वोच्च परमसिद्धिदायक सिद्धगतिको पाता है। तत्त्वज्ञानी संसारके ममत्वको दुःखवृद्धिरूप मानकर इस मृगापुत्रकी तरह परम सुख और परमानंदके कारण ज्ञान, दर्शन चारित्ररूप दिव्य चिंतामणिकी आराधना करते हैं ।
महर्षि मृगापुत्रका सर्वोत्तम चरित्र ( संसारभावनाके रूपसे ) संसार-परिभ्रमणकी निवृत्तिका और उसके साथ अनेक प्रकारकी निवृत्तियोंका उपदेश करता है । इसके ऊपरसे अंतर्दर्शनका नाम निवृत्तिबोध रखकर आत्म-चारित्रकी उत्तमताका वर्णन करते हुए मृगापुत्रका यह चरित्र यहाँ पूर्ण होता है। तत्त्वज्ञानी सदाही संसार-परिभ्रमणकी निवृत्ति और सावध उपकरणकी निवृत्तिका पवित्र विचार करते रहते हैं ।
इस प्रकार अंतदर्शनके संसारभावनारूप छठे चित्रमें मृगापुत्र चरित्र समाप्त हुआ।