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________________ भीमद् राजचन्द्र .............. १०२ [अशरणभावना प्रमाणशिक्षाः-जिस प्रकार उस भिखारीने स्वप्न में सुख-समुदाय देखे, उनका भोग किया और उनमें आनंद माना उसी तरह पामर प्राणी संसारके स्वप्न के समान सुख-समुदायको महा आनंदरूप मान बैठे हैं । जिस प्रकार भिखारीको वे सुख-समुदाय जागनेपर मिथ्या मालूम हुए थे, उसी तरह तत्त्वज्ञानरूपी जागृतिसे संसारके सुख मिथ्या मालूम होते हैं। जिस प्रकार स्वप्नके भोगोंको न भोगनेपर भी उस भिखारीको शोककी प्राप्ति हुई उसी तरह पामर भव्य संसारमें सुख मान बैठते हैं, और उन्हें भोगे हुओंके समान गिनते हैं, परन्तु उस भिखारीकी तरह वे अंतमें खेद, पश्चात्ताप, और अधोगतिको पाते हैं । जैसे स्वप्नकी एक भी वस्तु सत्य नहीं उसी तरह संसारकी एक भी वस्तु सत्य नहीं। दोनों ही चपल और शोकमय हैं, ऐसा विचारकर बुद्धिमान् पुरुष आत्मकल्याणकी खोज करते हैं। द्वितीय चित्र अशरणभावना उपजाति सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी, आराध्य आराध्य प्रभाव आणी अनाथ एकांत सनाथ थाशे, एना विना कोई न बाह्य स्हाशे । विशेषार्थ:-हे चेतन ! सर्वज्ञ जिनेश्वरदेवके द्वारा निस्पृहतासे उपदेश किये हुए धर्मको उत्तम शरणरूप जानकर मन, वचन और कायाके प्रभावसे उसका तू आराधन कर आराधना कर! तू केवल अनाथरूप है उससे सनाथ होगा । इसके विना भवाटवीके भ्रमण करनेमें तेरी बाँह पकड़नेवाला कोई नहीं। ___जो आत्मायें संसारके मायामय सुखको अथवा अवदर्शनको शरणरूप मानतीं हैं, वे अधोगतिको पाती हैं और सदैव अनाथ रहती हैं, ऐसा उपदेश करनेवाले भगवान् अनाथीमुनिके चरित्रको प्रारंभ करते हैं, इससे अशरण भावना सुदृढ़ होगी। ___ अनाथीमुनि ( देखो मोक्षमाला पृष्ठ १३-१५, पाठ ५-६-७) - प्रमाणशिक्षाः-अहो भन्यो। महातपोधन, महामुनि, महाप्रज्ञावान् , महायशवंत, महानिप्रथ और महाश्रुत अनाथी मुनिने मगधदेशके राजाको अपने बीते हुए चरित्रसे जो उपदेश दिया वह सचमुच ही अशरण भावना सिद्ध करता है। महामुनि अनाथीके द्वारा सहन की हुई वेदनाके समान अथवा इससे भी अत्यन्त विशेष असह्य दुःखोंको अनंत आत्मायें सामान्य दृष्टि से भोगती हुई दीख पडती हैं, इनके संबंधमें तुम कुछ विचार करो । संसारमें छायी हुई अनंत अशरणताका त्यागकर सत्य शरणरूप उत्तम तत्त्वज्ञान और परम सुशीलका सेवन करो। अंतमें यही मुक्तिका कारण है। जिस प्रकार संसारमें रहता हुआ अनाथी अनाथ था उसी तरह प्रत्येक आत्मा तत्त्वज्ञानकी उत्तम प्राप्तिके विना सदैव अनाथ ही है। सनाथ होनेके लिये पुरुषार्थ करना ही श्रेयस्कर है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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