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________________ भनिलभावना] भावनापोध १०१ ८ संवरभावना:-ज्ञान, ध्यानमें प्रवृत्त होकर जीव नये कर्म नहीं बाँधता, यह आठवीं संवरभावना है। ९ निर्जराभावनाः-ज्ञानसहित क्रिया करनी निर्जराका कारण है, ऐसा चितवन करना नौवीं निर्जराभावना है। १० लोकस्वरूपभावनाः-चौदह राजू लोकके स्वरूपका विचार करना लोकस्वरूपभावना है। ११ बोधिदुर्लभभावना:-संसारमें भ्रमण करते हुए आत्माको सम्यग्ज्ञानकी प्रसादी प्राप्त होना अति कठिन है। और यदि सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति भी हुई तो चारित्र-सर्वविरतिपरिणामरूप धर्म का पाना तो अत्यंत ही कठिन है, ऐसा चितवन करना वह ग्यारहवीं बोधिदुर्लभभावना है। १२ धर्मदुर्लभभावना:-धर्मके उपदेशक तथा शुद्ध शास्त्रके बोधक गुरु और इनके मुखसे उपदेशका श्रवण मिलना दुर्लभ है, ऐसा चितवन करना बारहवीं धर्मदुर्लभभावना है। इस प्रकार मुक्ति प्राप्त करनेके लिये जिस वैराग्यकी आवश्यकता है, उस वैराग्यको दृढ़ करनेवाली बारह भावनाओंमेंसे कुछ भावनाओंका इस दर्शन के अंतर्गत वर्णन करेंगे । कुछ भावनाओंको अमुक विषयमें बाँट दी हैं; और कुछ भावनाओंके लिये अन्य प्रसंगकी आवश्यकता है, इस कारण उनका यहाँ विस्तार नहीं किया। प्रथम चित्र अनित्यभावना उपजाति विद्युल्लक्ष्मी प्रभुता पतंग, आयुष्य ते तो जलना तरंग, पुरंदरी चाप अनंगरंग, शुं राचिये त्यां क्षणनो प्रसंग ! विशेषार्थः-लक्ष्मी बिजलीके समान है। जिस प्रकार बिजलीकी चमक उत्पन्न होकर तत्क्षण ही लय हो जाती है, उसी तरह लक्ष्मी आकर चली जाती है। अधिकार पतंगके रंगके समान है। जिस प्रकार पतंगका रंग चार दिनकी चाँदनी है, उसी तरह अधिकार केवल थोड़े काल तक रहकर हाथसे जाता रहता है । आयु पानीकी हिलोरके समान है । जैसे पानीकी हिलोरें इधर आई और उधर निकल गई, उसी तरह जन्म पाया और एक देहमें रहने पाया अथवा नहीं, इतनेमें ही दूसरी देहमें जाना पड़ता है । कामभोग आकाशके इन्द्रधनुषके समान हैं । जैसे इन्द्रधनुष वर्षाकालमें उत्पन्न होकर क्षणभरमें लय हो जाता है, उसी प्रकार यौवनमें कामनाके विकार फलीभूत होकर बुढ़ापेमें नष्ट हो जाते हैं । संक्षेपमें, हे जीव ! इन सब वस्तुओंका संबंध क्षणभरका है । इसमें प्रेम-बंधनकी साँकलसे बँधकर लवलीन क्या होना ! तात्पर्य यह है कि ये सब चपल और विनाशीक हैं, तू अखंड और अविनाशी है, इसलिये अपने जैसी नित्य वस्तुको प्राप्तकर । भिखारीका खेद - (देखो मोक्षमाला पृष्ठ ४३-४५, पाठ ११-१२)
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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