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- हिन्दी में भावव्यंजकता] बहुत ही सन्तोषजनक उन्नति करता आता है और करता जाता है । पद्य का प्रचार हमारे यहाँ पूर्वकाल से अब तक अच्छा रहा है । गद्य और पद्य में शब्दों का व्यवहार भी कुछ भिन्न है, क्योंकि पद्य में विशेषतया साहित्य , सम्बन्धी शन्दों तथा भावों की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु गद्य में विशेषतया
साधारण काम-काज वाले विषयों की रहती है । हमारे यहाँ के साहित्य में E. 'पूर्वकाल में शृङ्गार, धर्म तथा नृन-यश-कीर्तन का आधिक्य रहा ! इन विषयों
से इतर वर्णन कम हुए हैं । नाटकों का कथन यहाँ, कुछ-कुछ आवश्यक है, क्योंकि उनके विषय साधारण पद्य के विषयों से मिल जाते हैं। . .
अब हमारे यहाँ जैसे भावों का प्रयोग साहित्य एवं साधारण ग्रंथों में सदा से होता रहा है, उनके व्यक्त करनेवाले शन्द तो खूव प्रचुरता से मिलते हैं किन्तु जो अनोखे भाव हमारे अनुभव विस्तार से अब हमे ज्ञात हुए हैं, उनके व्यक्त करने का सामर्थ्य हमारे शन्दों में हर अवस्था में नहीं है। , अाजकल हमारा पाश्चात्य सभ्यता से मेल-जोल हुआ है और उसके सहारे से ससार के शेष प्रदेशों का भी ज्ञान हममें दिनोदिन बढ़ रहा है । भारत से इतर पृथ्वी के सभी देशों के विचारों तथा सभ्यता का ज्ञान हमें दिनोदिन अंधिकाधिक होता जाता है । उन नूतन भावों और दशाओं का.वर्णन हिन्दी में होना आवश्यक है । जिससे केवल यही भाषा जाननेवाले भी संसार की सभ्यता का ज्ञान सुगमता-पूर्वक प्राप्त कर सकें ।
अव प्रश्न यह उठता है कि यह उन्नति हिन्दी मे किस प्रकार आ सकती है । जहाँ तक समझ पड़ता है इसके दो सुगम उपाय है, अर्थात् नवागते भावों से पूर्ण ग्रन्थों का निर्माण और नवभाव-समर्थक नवीन शब्दों का ' बनाना । जब तक नये भावों से पूर्ण ग्रन्थ प्रचुरता से नहीं बनेंगे, तव तक नव विचारों के व्यक्त करने की आवश्यकता का ही अनुभव हमारे लेखकों को न होगा। ऐसी दशा मे समालोचक लोग उन लेखकों की सदैव निन्दा करते रहेंगे जो कि नवीन शन्दों तथा प्राचीन शब्दों के नवीन रूपों का व्यवहार करते हैं। इसका यहाँ एक उदाहरण भी दे देना ठीक समझ पड़ता है । हमारे मित्र ठाकुर गदाधरसिंह ने "चीन में तेरह मास" नामक एक ग्रन्थ रचा था ।