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शिवमूर्ति ] . उक्त विषय में श्मशान का वर्णन होगा, क्योंकि अन्यधर्मियों के आने से पहले यहाँ कत्रों की चाल ही न थी। योरप में खूबसूरती के बयान में अलकावली का रंग काला कभी न कहेंगे । यहाँ ताम्रवर्ण सौंदर्य का रंग न समझा जायगा। ऐसे ही सब बातों में समझ लीजिये तव समझ में आ जायगा कि ईश्वर के विषय में बुद्धि दौड़ाने वाले सब कहीं सव काल में मनुष्य ही हैं अतएव उसके स्वरूप की कल्पना मनुष्य ही के स्वरूप की सी सब ठौर की गई है। इंजील
और कुरान में भी कहीं-कहीं खुदा का दाहिना हाथ बायो,हाथ इत्यादि वर्णित है, वरच यह खुला हुआ लिखा है कि उसने आदमी को अपने स्वरूप में 'बनाया । चाहे जैसी उलट-फेर की बातें कही जॉय पर इसका यह भाव कहीं न जायगा कि ईश्वर यदि सावयव हैं तो उसका भी रूप हमारे ही रूपों का-सा होगा। हो चाहे जैसा पर हम यदि ईश्वर को अपना आत्मीय मानेगे तो अवश्य ऐसा ही मान सकते हैं, जैसों से हमारा प्रयत्न सम्बन्ध है। हमारे माता-पिता, भाई-बन्धु, राजा-गुरु जिनको हम प्रतिष्ठा का आधार एवं श्राधेय कहते हैं उन सब के हाथ, पाव, नाक, मुँह हमारे हस्तपादादि से निकले हुए हैं तो हमारे प्रम और प्रतिष्ठा का सर्वोत्कृष्ट सम्बन्धी कैसा होगा। बस इसी मत पर सावयव सब मूर्ति मनुष्य की-सी मूर्ति बनाई जाती है। विष्णुदेव की सुन्दर सौम्य मूर्तियां प्रेमोत्पादनार्थ हैं क्योंकि खूबसूरती पर चित्त अधिक आकर्षित होता है । भैरवादि की मूर्तियां भयानक हैं । जिसका यह भाब है कि हमारा प्रभु हमारे शत्रु ओं के लिये भयजनक है। अथवा हम उनकी मंगलमयी सृष्टि में हलचल डालेंगे तो वह कभी उपेक्षा न करेगा। उसका स्वभाव क्रोधी है। पर शिवमूर्ति मे कई एक विशेषतायें हैं । उनके द्वारा हम यह उपकार यथामति ग्रहण कर सकते हैं।
शिर पर गंगा का चिह्न होने से यह भाव है कि गंगा हमारे देश की सासारिक और पारमार्थिक सर्वस्व है और भगवान् सदाशिव विश्वव्यापी हैं । अतः विश्वव्यापी की मूर्ति कल्पना में जगत् वा सवोपरि पदार्थ ही शिरस्थानी कहाँ जा सकता है। दूसरा अर्थ यह है कि पुराणों मे गंगा की उत्पत्ति विष्णु के चरण से मानी गई है और शिवजी को परम वैष्णव कहा है। उस परम