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[हिन्दी-गद्य-निर्माण आनन्द की कैसी मूर्ति ? दुःख की कैसी मूर्ति १ केवल चित्तवृत्ति । केवल उसके गुणों का कुछ द्योतन !! वस ! ठीक शिवमूर्ति यही है । सुष्टि कर्तृत्व अचिन्त्यत्व, अप्रतिमित्व कई एक वाते लिङ्गकार मूर्ति से ज्ञात होती है । ईश्वर यावत् संसार का उत्पादक है । ईश्वर कैसा है, यह बात पूर्णरूप से कोई वर्णन नहीं कर सकता। अर्थात् उसकी सभी बातें गोल हैं बस जब सभी वातें गोल हैं तो चिन्ह भी हमने गोलमाल कल्पना कर लिया । यदि 'न तस्य प्रतिमास्ति' का ठीक अर्थ यही है कि ईश्वर की प्रतिमा नहीं है तो इसकी ठीक सिद्धि ज्योतिलिङ्ग ही से होगी, क्योंकि जिस हाथ, पाँव, मुख नेत्रादि कुछ भी नहीं है उसे प्रतिमा कौन कह सकता है ? पर यदि कोई मोटी बुद्धिवाला कहे कि जो कोई अवयव ही नहीं तो फिर यह क्यों नहीं कहते कि कुछ नहीं है। उत्तर दे सकते हैं कि पाखें हों तो धर्म से कह सकते हो कि कुछ नहीं है १ तात्पर्य यह कि कुछ है, और कुछ नहीं। दोनों वार्ते ईश्वर के विषय में न कही जा सकें, न नहीं कही जा सकें और हाँ कहना भी ठीक है एवं नहीं कहना भी ठीक है । इसी भांति शिवलिङ्ग भी समझ लीजिये वह निरवयव है, पर मूर्ति है। वास्तव में यह विषय ऐसा है कि मन बुद्धि और वाणी से जितना सोचा, समझा और कहा जाय उतना ही बढ़ता जायगा। और हम जन्म भर वका करेंगे पर आपको यही जान पड़ेगा कि अभी श्री गणेशायनमः हुआ है । इसी से महात्मा लोग कह गये हैं कि ईश्वर को बाद मे हूँ दो पर विश्वास में। इसलिये हम भी योग्य समझते हैं कि सावयव (हाथ, पाव इत्यादि वाली) मूर्तियों के वर्णन की ओर झुके । जानना चाहिये कि जैसा होता हैउसकी कल्पना भी वैसी ही होती है । संसार का जातीय धर्म है कि जो वस्तु हमारे अष्टतपास है उन्हीं पर हमारी बुद्धि दौड़ती है। फ़ारस, अरव और इग्लिश देश के कवि जव संसार की अनित्यता वर्णन करेंगे तो कबरिस्तान का नक्शा खींचेंगे क्योंकि उनके यहाँ श्मशान होते ही नहीं है । वे यह न कहें तो क्या कहें कि बड़े-बड़े वादशाह खाक में ढवे हुए सोते हैं । यदि कवर का तख्ता उठाकर देखा जाय तो शायद दो चार हाड्डयाँ निकलेंगी जिन पर यह नहीं लिखा कि यह सिकंदर की हड्डी है या नारा की। इत्यादि, हमारे यहाँ