SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ प्रायश्चिततृणमांसात्पतत्सर्पपरिसर्पजलौकसां। चतुर्दशनवाद्यन्तक्षमणानि वधे छिदा ॥ १४॥ __ अर्थ-मृग, खरगोश, रोझ आदि तृणचर जीवोंके विघातका मायश्चित चौदह उपवास है। सिंह, व्याघ, चीता प्रादि मांस. भतो जीवोंके मारनेका तेरह उपवास, तीतर, मयूर, मुर्गा, कवून तर आदि पक्षियोंके वधका बारह उपवास, सर्प गोनस आदि सर्प जातिके मारनेका ग्यारह उपवास, गोधा, सरट आदि परिस सों के विनाशका दश उपवास और मकर, शिशुमार, मत्स्य, . कच्छप आदि जलपर जीवोंके मारनेका प्रायश्चित्त नो उपवास है ॥१४॥ इस तरह प्रथम अहिंसावतसंवन्धो प्रायश्चित्त कथन किया आगे सत्यव्रतसंवन्धी प्रायश्चित्त बताते हैंप्रत्यक्षे च परोक्षे च द्वयेऽपि च त्रिधानृते।। कायोत्सर्गोपवासाः स्युः सकृदेकैकवर्धनात् ॥ अर्थ-प्रत्यक्षपरोक्ष और उभय (प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों . अवस्थाओंमें) एक बार झूठ बोलने तथा मनसे, वचनले ओर कायसे झूठ बोलने पर एक एक बढ़ते हुए कायोत्सर्ग, उपवास और चकारसे प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त हैं। भावार्थ-प्रत्यक्ष झूठ बोलनेका एक कायोत्सर्ग, एक उपवास और एक प्रतिक्रमण 4 है। परोत झूठ बोलनेका दो कायोत्सर्ग, दो उप
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy