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________________ [ ५६ ] भरथ पिता दुख भाळि ही वीवुळ वनवासी। सरगि गियो दसरथ, अनत कीधी अविणासी। सीता लखमण साथ, परम श्रे पदवी पाई। गोह भील गोविंद, रहे रन मा रुधराई। भाद्रवी गोठि कीधी भली, विसन थियो भोजन वडे । सिर जटा राखि दसरथ सुतन, चित्रकोट ऊपर चढे II चित्रकोट सा चले व्याधि दारणव विधांसरण ।. अगथि धनष प्रापियो, मारि इद रो रिपि रामण । सूपनखा रो स्रमण, नाक वाढियो निभै नरि । निमो अकलि रुघनाथ अनत पचवटी ऊपरि । खर सघर दैत दूखरण तिसर, दही वेल दहसीस री। चउदह हजार खळ चूरिया, जैत जैत जगदीसरी। ॥दोहा॥ जैत हुई जगदीस री, रावण रै मनि रीस। तूं मारे मारीच नो, सीत हरै दहसीस ॥ ६१ ।। लिखमी ना हर कुरण लिये, कुरण जीप करतार । कटक मारण कारणे, वीठळ कीयो विचार ॥१२॥ किसन अने लखमण कहै, करा महा जुध काम । सीता वाहर सामळो, रोस घणे मां राम ।। ६३॥ ॥ कवित्त॥ रामचद रिम राहि, आइ जटाइ उधारै । कमध छेदि कर कापि, तुरत सवरी ना तार । धन सवरी रौ धरम प्रभु महाराज पधारै । बाळि बाण सावहै साध सुग्रीव सुधारै । सुग्रीव दुख टळियौ सही, कहर वाळि सिर कोपियो। हरि मिळे आवि हणमत सूअधक पराक्रम अोपियो ॥१४॥
SR No.010757
Book TitlePirdan Lalas Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year
Total Pages247
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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