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________________ प्रस्तावना (श्री पीरदान लालस की गिरा-गरिमा) प्राध्यात्मिक चेतना और धार्मिक विश्वास भारत भूमि की एक प्रमुख विशेषता रही है । विश्व के अन्य भागो में जवे मानव श्वापदजीवन व्यतीत कर रहा था तव भारतीय ऋपि की रहस्यमय और पावन वाणी गगन मे गुजरित होकर आकाश की ऊँचाइयो को नाप रही थी। ईश्वरीय विश्वास की यह परम्परा हमारे समाज के सत्ययुग से प्रारम्भ होकर कभी पीन और कभी क्षीण धारा के रूप मे आधुनिक वैज्ञानिक युग तक निरन्तर दृष्टिगोचर होती है। श्री पीरदान लालस इसी प्रकाशलोक के एक आलोकित नक्षत्र हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल-क्रम की दृष्टि से श्री पीरदान रीतिकाल के कवि है पर विपय प्रतिपादन की दृष्टि से वे भक्तिकाल के कवियो मे स्थान पाने योग्य है । उनका प्रधान विषय है-अध्यात्म । ऐसा अनुमान होता है कि इस ओर उन्मुख करने मे उन्हे अपने भावगुरु श्री ईसरदासजी की रचनाओ से प्रेरणा मिली है जिनकी भाव-भक्ति देखकर 'ईसरा सो परमेसरा' उक्ति प्रचलित होगयी। पीरदान ने अपनी रचनायो में कई स्थानों पर ईसरदासजी को गुरु के रूप मे स्मरण किया है - "इसाणंद गुरु चित मा आणा, वेद व्यास ना पछै वखाणा। -नारायण नेह पृ०१ १ वरदा, वर्ष ५ अक ३ मे श्री वदरीप्रसाद साकरिया का 'महाकवि ईसरदास और उनका साहित्य' शीर्षक अभिभाषण
SR No.010757
Book TitlePirdan Lalas Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year
Total Pages247
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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