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शबुजय (विमलगिरि) तीर्थ स्तवन
झीणो है सखि झीणी ऊडई खेह,
मइला हे सखि मइला कापड थाइस्य। निरमल हे सखि निरमल थास्यइ देह,
पातक हे सखि पातक मल सवि जाइस्यइ ॥५॥ सो हिज हे सखि सो हिज सफल विहाण,
- जिण दिण हे सखि जिणदिन डुगर फरसौया । लीजइ हे सखि लीजइ लखमी लाह,
सोवन हे सखि सोवन दाने वरसियइ ॥६॥ दोसइ हे सखि दोसइ आहोठाण,
तिम तिम हे सखि तिम तिम आदिल संभरइ। प्रभणइ हे सखि प्रभणइ 'राजसमुद्र',
अनुपम हे सखि अनुपम ते सिव सुख वरइ ॥७॥
शत्रुजय (विमलगिरि) तीर्थ स्तवन मन मोहयउ हे सखी गरुयइ 'विमल' गिरिद,
खांति करी धन खरचीयइ। म०। आदिल आदि जिणिद, चंदन केशर चरचीयइ म०1१।म 'पालीताई' पाजि, ललितासर लहिरा लियइ म०) माता श्री मरुदेवि, दरिसरण सुख संपति दीयइ म०।२। चौमुख चंवरीः च्यार, 'खरतर वसही' देखियइ मि०॥ पगला राइण पास, भाव भगति धर भेटियइ ।म०।३। जिहां सीधा मुनि कोड़ि, चंगी चेलन तलावड़ी म . अनुपम उलखाडु झोल, सिधवड़ नी साखा बड़ी मि०॥॥ जूना अइठांगइ, जुगतइ फिर फिर जोइयइ ।मा पभणइ 'राजसमुद्र', मल कसमल सब धोइयइ म०॥५॥