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जिनराजसूरि-कृति- कुसुमांजति
टूटी तातइ नस सधइ रे, तिण गोत्र तीर्थकर वधइ रे || ३मि० चित्त भगति वसई पूरीजइ रे, तर असुभ करम चूरीजइ रे ! शिवपुर नइ हाथउ दीजड रे, मानव भव लाहउ लीजइ रे ॥ ४मि. ते हिज जीहा सलहीजइ रे, जिण प्रभु नउ सुजस कहीजइ रे । 'जिनराज ' सखाई कीजइ रे, मनवंधित सुखपामीजइरे ॥ ५मि (२१) श्री बीस विहरमाण जिन गीतम् ढाल - लोक सरूप विचारो ए देशी
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वोस जिगोसर जगि जयवता जाणियइ रे, अढीदीप मझार । धन ते गामागर पुर प्रभु विचरs जिहां रे,
साधु तणइ परिवार ॥१॥ वी० ॥ वासुदेव झलदेव भगति नित साचवइ रे, लहिवा भवजल तीर । चउरासी लख पूरब सहुनउ आउखउ रे,
गुण गरुआ गंभीर ॥२॥वी० ॥ वृप लाछन सोभित तनुनी अवगाहना रे, पणसय धनुष प्रमाणि । समवसरण वारह परपद प्रतिबोधता रे,
जगगुरु अमृत वाणि ॥३॥ वी० || धन धन ते जोहा जिण प्रभु गुण गाइयइ रे, आणी मन आनंद । धन धन ते दिन जिण दिन भेटीयइ रे,
विहरमाण जिणचंद ||४|| वी० ॥
'खरतर' गच्छ युगवर 'जिनसिंह सूरिद' नउ रे, सोसइ धरीयइ जगोस ।
श्री ' जिनराज वचन अनुम रइ सथुण्यारे,
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विहरमारण जिन वीस ॥५॥वी० ॥
इति श्रीजित राजसूरि कृत वीस विमान जिन गीतम्