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श्री विहरमान विशति जिन गीतम् २६ (१९) श्री महाभद्र जिन गीतम्
ढाल-मन मोहनीयइ नी देसी लहि मानव अवतार, गुरु मुख त्रिविध त्रिविध व्रत ऊचरु । न पलइ निरतिचारि, परभव नउ डर तिल भर नवि धरू ॥१॥ ए प्रभ आगलि जे वीतग ते भाखोइ, मनका सल्ल कूड कपट स्य राखियइ। पर अवगुण चिहुंमांहि, आणी सांक न कामइ भाषतइ । दीधा कूड़ कलंक, पोतानइ स्वारथ अण पूजतइ ।।प्र०॥ दय पर नई उपदेस, आगमने वचने अति आकरू । जाणइ लोक महंत, पिण पोतइ ते मूल न आचरूं ॥३॥प्र०॥ विनडइ च्यार कषाय, ते परि हु कहि न सकू लाजतउ । सदगति करणी सार, दीसइ छइ अलगी प्रभु आजतउ॥४॥प्र० एक अछइ आधार, सरदहणा साची प्रभु ऊपरई। महाभद्र 'जिनराज' ते प्रभु जे सेवक नइ ऊधरई ॥५॥०॥
(२०) श्री अजितवीर्य जिन गीतम्
दाल -सुखदाई रे सुखदाइ रे-ए देशी मिलि आवउ रेमिलि आवउ रे,
श्रीअजितवीरज गण गावउ रे ॥मि. अति सुस्वर सधव सहेली रे, मन मेलू भगति गहेली रे। मिथ्यामत दूर रहेली रे, बइसउ दस पांच महेली रे ॥१॥मि० परतिख प्रभु नयण नदीसइरे, मेलउ न दीयउ जगदीसइ रे। परपूठइ ध्यान धरीसइ रे,तउपिणभव जलधितिरीसइरे।रमि, रावण वीणा धरि खंधइ रे, गण गातउ विविध प्रबंधई रे।