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जिनराजसूरि- कृति कुसुमांजलि
(५) श्री सुमतिनाथ गीतम्
राग - मल्हार
करता सुं तउ प्रीति, सहु हीसी करइ रे सहु हीसी करइ परमेसर सु ं प्रीति, करुं हुं सी परइ रे क० 1 आपणपइ नीराग, न रागी सु अडइ रे न० । ताली एकण हाथ, कहउ किण विध पडड़ रे क० ॥ १॥ कर० ॥ सेवी जोयउ सामि, आगलि ऊभा रही रे आ० । पडि पडि मरइ पतंग, दीवाचइ मन नही रे दी० ॥ भगति करु सउ भांति, न सोम नजरि करइ रे सो० । नांगइ मन असवार, घोडउ दउडी मरइ रे घो० ॥२॥क० ॥ सुमतिनाथ जगनाथ, पखइ मन माहरइ रे प० । देव अवर नी सेव न आवइ काइरइ रे न० ॥ बाबीहर जिम चूंच, न वोडिइ जल नवइ रे न० । जलधर सुरूं इकतार, करी प्रीउ प्रीउ लवइ र क० ||३||क०|| नीरजन चउ नेह, लखी नवि को सकइ रे ल० । कईयर वीजां हि जेम, चिहुं मांहि वकइ रे चि० ॥ आपइ अविचल, राज, लागी जउ को रहइ रे ला० । भगतिवच्छल 'जिनराज', विरुद साचउ वहइ रे वि० ॥ ४ ॥ क ०
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(६) श्री पद्मप्रभ जिन गीतम् राग - धन्यासी जाति भवन री
कागलियउकरतार भणी सी परि लिखूं रे कवि. पूछु कर जोड़ि । जिम तिम' लिखतां हाथ वहइ नही रे,
लिखिवा नो पिण कोडि ॥१ ॥ क० ॥