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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि
धर्म गोष्टि ध्रम थानकि, करइ दिवम नइ राति । धर्म बुद्धि मन मई धरइ, करइ नही परताति ||७|| तिणि अवसर पाव्या तिहाँ, खरतर गछि सिरणगार । श्रावक लोक वांदइ सहु, जिनसिंहसूरि गणधार ।।८।। आवइ कुमर तिहां करिंग, वादी सदगुरु पाय । वेकर जोड़ी सांभलइ, गुरु वखारण सुखदाय ||६||
ढाल चउथी राग-गउडी जाति प्रीतम रह रहउ सनतकुमार नर अवतार ससार मई लहतां, दसे दृष्टांते दोहिलउ । जीवा जोनि चउरासी लख मइ,
भवमता भवि भवि सोहिलउ ||१|| भविक जन सुणउ सुगउ धरम विचार,
तुम्हनइ थायइ भव निस्तार ॥ भ०॥माकरणी नरभेव सार भलउ कुल लहियइ, कुल थी धरम प्रकार। घरम सार सरदहणा कहियइ, तेहथी बीरिज सार ॥२॥भ०॥ श्रावक नउ कुल लहि भ्रम कीजइ,धरम सामग्री जा छ। बत्रीस लाख विमान नउ स्वामी,
इंद्र श्रावक कुल वाँछइ ॥३॥०॥ विषया सुख मई सुर लपटारणी, नारकि नइ दुख भोग । नही विवेक तिरजचा माहे, तिणि मानव ध्रम जोग ॥४॥०॥ मन तकाय बत्तीस बिवज इ, बलि बावीस अभक्ष । मदनई मांस मांखण लघु एहना, दोष कहया बहु लक्ष ॥५॥०॥ श्रावक नउ कुल पामी न करइ,वच अनइ अपमान । कूड कपट पर निंदा न करई, करइ ध्रम नइ ध्यान ॥६॥०॥ काल अनंतइ श्रावक कुल लहि, मिथ्यामति प्रलिबुद्ध । व्रत वारह इकबीस गुणे करि, जे श्रावक ते सुद्ध ||७||भ०॥ दस विध साघु धरम कहिवायइ, घरमा मांहि प्रधान ।