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जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि
श्रावासे सात भूमीए, वछ, गळ्या गउव म डारण | सयन करइ तिहा सुख भरणी, वछ, जेठ माम जगि जारण ॥ २ / सु०॥ रवि साम्ही आतापना, बछ, करता दिवम विहाय ।
रातइ भूमि स थारडइ वछ, केलि गरभ सम काय ||२५|| सु०॥ वाला खाने वइसब, व, वीजण वीजइ वाय । फूल्या फूल गुलाब ना, वछ, मोटी दाम सुहाय ॥ २६ ॥ सु०॥ ईरेज्या समता चालतां वछ, जाइवउ गोचर काज । कच नीच घरि वहिरवउ, बछ, जेम कहउ जिनराज ||२७|| मु०|| ढाल - धरम हीयइ धरउ, पहनी
मानक सुरण मातजी रे, नहीय करू गृहवास |
माया दीस कारिमी रे, तिरण सुरौं केही आमो रे ॥ २८स जम प्रद तणु धन योवन कारिमउ रे. स्वारथ सहु परिवार ।
खिरण खिरण छोजइ आउखउ रे दीसइ सहु प्रमारो रे | २६सं० ॥ इम जारणी माता पिता रे, दीघउ व्रत आदेस ।
श्रादरसु श्री गुरु कन्हइ रे, ल्यइ मुनिवर नउ वेसो रे ||३०||स०॥ ग्रहरणा नइ आसेवना रे, सीखाइ सिख्या सार ।
अनुक्रम चवद विद्या तरणउ रे, मुनिवर थयउ भडारो रे || ३१ ० युगप्रधान गुरु थापिया रे, अकवर साहि हजूर ।
'करमच द' कुलच दलउ रे, उच्छव करइ पडूरो रे ||३२||स० ॥ श्री जिनसिंहसूरीसरू रे, दिन दिन अधिकइ नूर । त्रिकरण सुद्ध वादता रे, दुख जायइ सहु दूरो रे ॥ ३३ ॥ स ० ॥ साहि सलेम प्रतिबोधनइ रे, वरतावी रे श्रमारि । छम्मासालगि त्रिहु खडे रे, जागइ सहु स सारो रे ||३४|| स ० ॥ 'जेसलमेरू' जगि परगड़उ रे, राउल भीम सुजाण ।
स वत सोलई चउसठइ (१६६४) रे, नमि कातिक र्वाद जारगो रे || ३५स० मनसु भगत गावतां रे, अधिक हुइ आरणद । 'राजसमुद्र' मुनि इम कहइ रे. प्रतपउ जाम गिरिदो रे || ३६ || स ० ॥ इति श्री गच्छाधीश्वर श्री जिनसिंहसूरि राजानां द्वादसमास वर्णनम् समाप्तं पंडित लब्धिकुर मुनिना लेखि । पत्र २ सग्रहमे नं०७६१२