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________________ १७४ जिनराजमूरि-कृति-कुसुमांजलि तिल भरि नवि माहे वाक, दूपग न लगावड टाक । इण परि सुर सतोपारणउ, पिण एकरण बोल लजागाउ ॥१६॥ फलती दीसइ नही पासा। भूठी किम थाड दिलासा। फेडइ लागो ते केडउ। किम मूक एह कुहे. 1१७॥ छूटई कुरण भावी प्रागइ। उद्यम पिण करिवउ लागइ। सोहम सुरलोक निवासी । आपरणपइ आप विमासी ॥१८॥ सर्व गाथा १२५ ॥ दहा ॥ तूं नइ सुलसा करमगति, सुर सानिधि प्राधान। पावसर एकरिग जिम धरउ, तिम प्रसवउ सतान ॥१॥ करइ कस जे कल-विकल, फलइ न तिल भर तेह । मारथा ते न भरइ किमइ चरम देहधर जेह ।।। जउ साहिब राखण करइ, तउ मारी न सका कोई। वाल न वाकउ करि सकइ, जउ जग वयरी होइ ।।३।। नल कूवर सम सलहीयइ, रूपन्त धरि लीह । जात मात्र सुर स ग्रही, अनुक्रमो छए अबीह ||४|| अगज तुझ आगलि घरी, पूरइ जासु उमेद । तास धरइ तुझ आगलइ, पिण को न लहइ भेद ॥५॥ सर्व गाया १३० ढान ८ बेवे मुनिवर विहरण पांगुरया रे एहनी स तोषी इण परि सुलसा भणोरे । निज थानक सुरवर ते जाय रे। करम निकाचित को टालइ नही रे। तउ पिरण सीझइ दाय उपाय रे ॥१॥स ०|| गरम समइ छतइ पूरइ हुयइ रे । सुलसा जनमइ मूया बाल रे।
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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