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श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई
सुलसा सिर घूरणी सोचइ । इरण परि मन सू आलोचइ ॥ ४॥ बालक घरि माहि* न दीसइ । रिद्धि देखी न हयउ' हीसइ । नाची पग साम्हउ जोवइ । जिम मोर नयरण भरि रोवइ ॥ ५॥ पाछलि जउ एक नमूनउ । न हुवइ तउ सहु जग सूनउ । जायइ पाखइ कुण राखइ । मुलकति सहुकोनी साखइ ||६|| श्रागलि गज जउ हालइ । सहु दुख विसारी घालइ । वसती जिरण जायइ थायइ । जामिरणो वसती कहइ न्यायइ ||७||
॥ दूहा ॥
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जिनवर वचन विचारता, निश्चय नइ व्यवहार । छउ (इ) अधिक नही, नय बिहुँ माहि लिगरि ||८|| भावी मेटिन को सकइ ए निश्चय नय सार । जे उद्यम मूकइ नही, ते राखइ व्यवहार |||| एकरण भावी ऊपरइ, बइसी न रहइ कोइ । पहिली उद्यम प्रादरइ, तउ भावी फल होइ ॥ १॥ पडयउ अछइ निश्चय धरणी, वाते विसवावीस | तउ पिरण उद्यम पडिवजइ, आपण पइ जगदीस ॥११॥ ॥ यति ॥
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सोहमपति सेवक धूनउ । पायक दल माहि न मूनउ । गुरण ग्राहक परउपगारी | सुरवर सुध समकित धारी ॥ १२ ॥ ॥ मद मच्छर माया छाडी । पहिरी जल भीनी साडी । मन सुध तसु सेवा सारइ । सुलसा निज कुल प्रसारइ ॥ १३१ ॥ ऊभा सहु कारिज मू कइ । ते वेला किमही न चूकइ । दिन प्रति नव नेवज चाढइ । तउ घर बाहिर पग काढइ || १४ || सेवा करतां अटकारणी । मुह माहि न घालइ पारणी । साची सेवा विधि जाणी । कारिज सिद्धनी सहिनारणी ॥ १५ ॥
* माझि