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जिनराज सूरि कृति कुसुमांजलि
सफलकरण मानव अवतार,
इरणपरि हे इरपरि भावन भावीयइ ॥ ११ ॥ सा० ॥
सर्व गाथा १०२
॥ दूहा ||
आगलि प्रावी साचवी त्रिकरण मुद्र प्रणाम । वे कर जोडि पूछिवा, जगगुरु भासइ ताम ॥१॥ श्राव्या ना विहरवा, मुनिवर निरखी तेह | रोम रोम तुनु उलसर, जाग्यउ नवल सनेह ||२|| नारि अवर साबति थई, जिरग जाया सुत एह । साधु वचन पिरग (न) हुवइ मृषा, मन मइ * थयउ मदेह || ३ || ते तू आवी पूछिवा, एसx अत्य समरत्थ । हंता भामइ देवकी, कहउ हिरइ वइठी बारह परखदा, भासइ अलवि अलीक न उचरइ, प्रतिसय
परमत्थ ||४||
भगवंत ।
महंत ||५||
सर्व गाथा १०७
इम
वत
ढाल-७ यतिनी
भद्दिलपुर रिद्धि समृद्ध | तिहा नाग घरणि सुप्रसिद्ध । कोसीसा कलस विचालइ । सुलसा निरदूषण पालइ ॥ १ ॥ भावी सुभ असुभ विचारइ । जे देखी तनु लक्षण वीथी । वहतइ इम संतान सही सू थासी । पिग माछि+ भावी सूं जोर न चालइ । ते बोल सतान पखइ ससारी | दिलगीर
सामुद्रकऋणु सारइ । वात कही थी ||२||
छता मरि जासी । होनिसि सालइ ॥३॥ हुवइ नर नारी ।
*इम X एम, ए सह + माहि