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श्री गज सुकमाल महानुनि चौपई
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सुर निज वाणी साच करण भरगी रे ।
तिण ठाँमइ श्रावइ ततकाल रे । २॥सा० इम अनुकम वालक निरजीवते रे । प्राणी आणी मूकइ पास रे। पिण तू भेद न जाणड देवकी रे।
देव सगति तिहां किसी विमासि रे ||शास० तुझ अगज रस मित हरि सारिखा रे ।
सुनसा पासइ मू कइ तेह रे। निज सुर* तरूनी परि पालइ सदा रे ।
तिल भरि ओछउ नही सनेह ।। |सं० तिण ए सवि x अ गज सुलसा तणारे । नदन तुझ जाणे निरधार रे । नयण जगावड नेह तिरगइ घणउ रे ।
अधिकउ मोह करम अधिकार रे॥॥स० श्री नेमीसर वचन इसा सुरगी रे।
उलसइ (तिरण) निज अग अपार रे । पान्हा हु ती प्रगटइ परतणी रे ।
तिण अवसरि बत्रीसे धार रे ॥६॥स० लोचन विकसक कचुक उकसइ रे । वलियाँ माहि न मावइ बांह रे। हरखइ रोमचित काया थई रे।
दूरि टल्यउ सगलउ दुख दाह रे ॥७॥स० जाण्यां पाखइ पिणजउ प्रति घणउ रे ।
तिण अवसरि तसु हु तउ नेह रे । प्रचरिज स्यउ थायइ जाण्या पछइ+ रे ।
अधिकउ दूर टल्यउ सदेह रे ॥८॥स० अनमिष लोचन ते सुत-- देखि- इ रे ।
जाण्यउ सफल जनम मुझ माज रे ।
*सुतनी xनवि प्र गज +पाखइ ~तसु