________________
श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १६७" आज चउथउ अरउँ द्वारिका जी, माहि सत पीढिया साह।। साहरइ जे दुनी डोलती जी, सहस लगि पउलि प्रवाह ॥६॥०॥ परवदिन पौषध अनुसरइजी, साधुनउ. जउ जुडइ योग। बारमउ व्रत पिण पारणइजी, साचवइ श्रावक लोक ॥१०॥स०॥ वात छइ अचरिज सारिखीजी, माहरइ.मन न समाइ। . स्वाद कहतां न को ऊपजइजी,विरण कहया पिणन रहाइ ॥११स० ऊंच कुल नीच कुलं गोचरी जी, अरसनइ ,विरस माहार। स्युन मिलइ आया* फिरीजी,एकरिण घरि त्रिह, वार ॥१२॥स०॥
'.. ' ', '5 " सर्व गाथा ५७ ]
1
.
छए, जिनन । परिवार ,"
छठx छ
माया . काया कारिमी स्वारथ निउ । परिवार ।, प्रतिबूधा बंधव छए, जिनवर बचन विचार ॥१॥ छठx छठनइ पारगइ, लेई / प्रभु आदेस । जावा पाडे जू जूए, कीधर नंगर * प्रवेस ॥२॥. जाणां छां आव्या हुस्य पहिली मुनिवर च्यार। थोडइ थोडइ आंतरई, तो, पिराइण अणुहारला। जिण अम्ह न दीठा हुस्यइ, हरि करि बार हजार। प्रायइ ते पिण पांतरइ, बोलाचरणारी वार |४ प्राज इहाँ भिक्षा सुलभ, सहारको लोक समृद्ध । मरस विरस आहार, ल्यइ, साधुन को रसगृद्ध ॥५॥
[सर्व गाथा ६२]
*पधारथा वलीजी xछए