________________
जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि
तू देवर तू जेठ सगीनो, तूं मन मोहन नाह नगीनो । तू पीहर तू सासर वासो, तुझ विरण सूनो ग्रासो पासो ॥६॥ इस परि विविध वचन कही थाकी, न रहयो कहिवा जोगो वाकी । सालिकुमर मन माहि विचार, सहु को मोह महीपति सारै ॥१०॥ जे भामरण सु सग करावे, ते लेई दुरगति पहुचायें | हित वंछक मावीत कहावे, पिरण प्रतर गति कोइ न पावे ||११|| ॥ दूहा ॥ श्रावी दीघ वधामरगी, वनपालक तिरगवार । धर्मघोप श्राव्या इहा चोनारणी श्ररणगार ॥१॥ सालिकुमर मन चितवे भले पधारथा तेह | मुह माग्या पासा ढल्या, दूधे वूठा मेह ॥२॥ पहली पिरण व्रत आदररण, मो मन हुतो हेज । हिव जाणे निदालुये, लही विछाई सेज ॥३॥ कुमर साध वदरण चल्यो, रिद्धि तरगो विस्तार | पाचे अभिगम साचवी, बैठो सभा मझार ||४|| सवेगी सिर सेहरो, सूरि सकल गुण खारिण । भव सरूप इम उपदिसे, मुनिवर अमृत वारिण ||५||
१३८
हाल- १४ राग गोड़ी विणजारा नी जाति
प्रतिबूझोरे लहि मानव अवतार, तप जप संजम खप करो प्रतिबुझो रे । प्रति० जिम हुवै छूटक वार, गर्भावास न अवतरो प्रति० ॥ १ ॥ प्र० स्वारथीयो जग माहि, मत को जागो आपरो प्रति । प्र० हाथ छछोहा वाहि, आज काल्हि मै चालगो प्रति० ॥२॥ प्र० रहिता जिम तिम प्रारण, जिरण गामातरि चालियै प्र० । प्र० ओलीजें समसारण, घर ग्राभोषो घालियै प्र० 11311 प्र० काल न देखे कोई, ऊपरवाड़े रांचतो प्र० प्र० जे सर अवसर होइ, वार न लावे खाचतौ प्र० ||४||