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शालिभद्र धन्ना चौपाई
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|| दूहा ॥ इम सहजइ घर विध कही, दीन हीन वयरणेह। पिण तन मन डोल्यो नही, रखे दिखावै छेह ॥१॥ जो निरदपण परिहरे, तो हिव केही लाज । गाडो उललिये पर्छ किसी विनायक काज ॥२॥ हिव वहिली वाहर करो, वहिनी म लावो वार । भद्रा सासु नै कहो, प्रीतम तणौ प्रकार ॥३॥ बात भेद लाधां पछे, देखी कुमर उदास । भाखै सीख रुखा वचन, ऊंची चढि आवास ॥४॥
__ ढाल-१३ राग जैतसिरी सुगणसने ही मेरे लाला,चीनती सुणी मेरे कंतरसाला, एहनीजाति नमणी खमणी नइ मन गमणी, रमरिण बत्तीसे सोवन वरणी। सुकुलोणी नइ सहज सलूणी, किरण कारण ए ऊरणी झूणी ॥१॥ ए सवि नारि चले तुझ केडी, थूक पड तिहाँ लोही रेड । कथन तुहारी काय न खडे, उडै सिस जिहा पग मंडै ॥२॥ जी जी करता जोहा सूके, मुह थी नाम न काई मूकै । तुझ सासेही काई न ध्राप, तो इवडो दुख स्यानै प्रापै ॥३॥ तुझ गायी गावे सह कोई, हुवै सुप्रसत्र सनमुख जोई। इम वैठो तन मन सकोची, तूं तो मूल नही पालोची ॥४॥ जो परतखि अवगुण देखीजै, तो परिण मन मे जाणि रहीजै ।। दीठउ परिण अगदीठउ कीजै, नारि जाति नो अत न लीजै ॥५॥ अटक झटकि किम छेह नदीजै, जोको दिन घरि रहिवा कीजै। नीत वचन चौथो संभारो, कामरिण ऊपरि कोप निवारो ॥६॥ जाण्यो हुवै तो दोष दिखाडो, परिण घर बाहिर बात म पाडो। माहे तेडी ने समझावी, दोखी जन ने काइ हसावो ॥७॥ तू तो आज अजब गति दीस, हियड़ी हेजे मूल न हीसइ । एहवी पूत पराई जाई, इम किम नांखउ छउ ध्रसकाई ॥६॥