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शालिभद्र धन्ना चौपाई
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सात आठ पग साधु नै जो. पहचावी सिरनामि । करी प्रणाम पाछो वल्यो जी, बैठो ठामो ठाम ||११||सा०।। बोध सुलभ जनमतरै जी, लहिस्यै भोग प्रधान । इम सुपात्र आवी मिल्यो जी, दीजे अढलक दान ||१२||सा०॥ माता पिण आवी तिस जी, खाली दीठौ थाल । खीर परीसै थाकती जी, त्रिपतो थयो न बाल ॥१३॥सा०॥
॥ दूहा ॥ सगम वात न का कही, पाछलि बीती जेह । देई दान प्रकासस्य, फल निगमस्यै तेह ॥१॥ देइ दान पमावस्य, वरय न पडस्यै ताह । फल तो तेहिज ले रहया, जीभ न ही जाह ।।२।। वछ नै देखी जीमतो, जामण करै विचार । इतली भूख सदा खमै, धिग माहरो जमवार |॥३॥ निस भर थई विसूचिका, काल मास करी काल । साधु ध्यान धरतो थको, पाम भोग रसाल ॥४॥ ढाल-३ राग गुंड, इक दिन दासी दोड़ती, ए जति
लाखे गाने लाखेसरी, सह जेहने हेठ रे ।
लाछिनो जे अछे धरणी, तिहाँ गोभद्र सेठरे ।१।। दान उलट धरै दीजीये, फलयतो सुविशेष रे । संगमै भव तणे अतर, लोधा भोग सपेख रे ॥२॥दा०॥ नारि भद्रा उरु कदरा, मृगराज अणुहार रे । काल करी बाल ते अवतरयो, फल्यो दान सहकार रे ॥३॥दा०॥ रयरिण सुपनन्तर सालिनउ, दीठउ खेत्र निप्पन्न रे । फल कहइ सेठ, हरखित हुयउ. हुस्यइ पुत्र रतन्न रे ॥४॥दा०॥ गर्भ नी करै प्रतिपालणा, लेई न थ नी साख रे। धनड नो मुख जोइवा, धरै मन अभिलाष रे ॥शादा०॥