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जिनराजसृरि कृति कुसुमाञ्जलि
भरणी, वैसारणी
ससनेह | परीसें तेह ||२||
बोलावी वालक माना अति हरखित थई, खोर प्रति ऊन्ही जारगी करी, ठाउँ देई फुंक 1 थयो एक श्रचरिज तिसे, सुराज्यी प्रालस मूंक ||३||
ढाल - २ श्रइया, मेघ मुनि कांइ डमडोलैरे, ए जाति जामरण कारिज ऊपने जी, जाइ जिसे घर माहि । अतिथि एक आयो तिसै जी, ग्राण्यो करमें साहि ||१|| साधु जी भलै पधारथा श्राज, मुझ सारी वछित काज ॥ सा० मास खमरण नै पारण जी, जगम सुरतरु जेह । शिव मारग अवगाहतीजी, खीरण देह गुरण गेह ॥ - ॥ सा० ॥ बालक मन हरिखित थयौ जी, दीठो मुनिवर तेह |
रोम रोम तनु ऊलस्यो जी, जाग्यो धरम सनेह ||३|| सा०|| घर आगण सुरतरु फल्यो जी, ग्राज भले सुविहारण ।
आज भली जागी दसा जी, प्रगटयो प्राज निहारा ॥ ४॥ सा० ॥ जे भव भमता दोहिला जी, चित्त वित्त ने पात्र |
कुरण तीने लही एकठा जी, ढील करें खिरण मात्र ॥ ५ ॥ सा० ॥ जे सामग्री दोहिली जी ते मैं लाधी श्राज । जो हु हित्र सफली करुजी, तो पांमु सिवराज ॥ ६ ॥ सा० ॥ कीधी का न विचारणा जी, भाव भगति भरपूर । पायस थाल उपाडि नइ जो प्रायो साव हजूर || || सा०|| मांडे पडघो जागि नै जी, निरदूषण आहार ।
पडला भावे चढयो जी, खीर प्रखडित धार ॥ ८ ॥ सा० ॥ पात्र दान फल ए लहो जी, अतराय मत होय । नाकारो न कहो तिरण जी, पुण्य जोग आवी मिल्यो जी, दीघो दान तिसी पर जी,
लालच न तो कोय ॥१॥ सा०|| उत्तम पात्र विशेषि । थाल रहधो अवशेष ॥१०॥ सा० ॥