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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि दिन दोउ रहत वचन के अटके, अंत विराणे जाहि ॥वि०१।। विणुजारइ ज्यु छोरि चलइगे, जरती छारि' क भाहि । 'राजसमुद्र' भरिण रसिक शिरोमणि,
इक थानक ' न खटाहि ॥वि०॥३॥ परमारथ पिछानो
राग-जइतसिरी तू भ्रम भूलउ रे आतम हित न करइ,
__ आपणपउ नायउ नजरइ ।।१।। पइठउ श्वान काच कइ मदिर,
मूरखि भुसिहि भुसि मरइ ॥२॥तू०।। अतुलो बल केहरि जल पूरित,
कूया भीतरि कूद परइ ॥३॥तू०॥ दर्पण कइ परसरि आयइ थइ,
__ तुमचर कइसी भांति लरइ ॥४॥तू०॥ भोति फटिक की देखि दूरि थइ,
परिणत मइगल आइ अरइ ॥५॥तू०।। परमारथ तउलु न पछानइ तउलु'राज' न काज सरइ ॥६
'जागर' प्रेरणा
राग-धन्याश्री सोवन को वरीया नाही बे,जागउ आपणइ घर मांहि बे ॥१॥ हेरून विछाणा साहो बे, आयउ अब धवलउधाही बे ।।२।।
१- माहि जगाहि, पिछाहि २- ठौर - धुरी