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मोह बलवंत गीतम्
अयसउ हुयो न हुइ कुबुधी, थिर रहइगो इया बात । 'राज' न जोर चलइ भावी सु, काहू कउ तिलमात ॥क० ३॥ (१२) पुनः विभीषण वाक्यम्
राग-सारंग निपट हठ झालि रहयउ बेकाम । जानत हूँ मेरइ भायइ तू, खोयइ गउ सब माम ॥नि०॥१॥ कोनउ पात पात सब उपवन, रहयउ राम कउ नाम । अइसी आग व्रजागि लगाई, जरे कनक के धाम ||नि॥२॥ जा कइ दूत करी या करणी, सो कहा करहइ राम । समझउ 'राज' भेज दयउ सीता,
जनि कोउ करहु सग्राम ॥नि०॥३॥ - मोह बलवंत गीतम्
राग-मल्हार मोह महा बलवत, कवण जीपी सकइ रे क० । इण आगलि पग मांहि, रहइ दस वीस कई रे ०६०।। सहुनइ आण मनावइ, चउपट चउहटइ रे च०। किण ही आगलि एह न, तिल भरि अउहटइ रे ति०॥१॥ 'रिषभदेव'नी पूत;खबरि नवि को लीयइ रे व०॥ 'भरत' भणी 'मरुदेवा', उलभा दियइ रे उ०॥ भूख तृपा तप सीत, सहतउ साभली रे सा०। झूरता निसि दोस, नयन छाया वली रे॥न० ॥२॥ जामिणि नी अनुकपा, मन माहे वसी रे म०। लीन रहयउ पाणी वलि, प्रभु एकरिण दीसो रे प्र०॥