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དད་ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि (९) रावण प्रति सीता वाक्यम्
राग-सोरठ हरि कउ नाम लइ दसकध, काहे तजइ कुल कउ माग । राम विणु परपुरुष मेरे, भाय कारउ नाग ।ह०॥१॥ अति चतुर तू मति होइ आतुर, इहां न तेरउ लाग । पतिव्रता कइ प्रेम पति सु, अउर सुवइराग ॥०॥२॥ तजिनीच गति भजि ऊंच संगति', वढइ दिन दिन आग। रघुवीर रूडइ 'राज' रावण, किम रहइ सिर पाग ।।ह०॥३॥ (१०) हनुमत प्रति सीता वाक्यम्
राग - सोरठ आगइ आइ ठाढउ रहयउ वनचर, कर चरग प्रणिपात । आन तजि जानकी पूछी, राम की कुसराति ॥१॥आ०॥ सहल सी हु टहल करती, साग मूरी पात । चरण चेरी आण धेरी, मोहि कछु न वसात' आ०॥ रहत हइ किस भांति पीउ कइ, कउण हइ संघात । कहि देव दारणव 'राज' आगइ, कही मेरी वात ॥३।आ०॥
(११) विभीषण वाक्यम्
राग-सारग कहत अइसी भाति विभीपण भ्रात। तू दसकंध अंध भयो जा परि, उवा दुहिता तू तात ॥१क० कहा गई तेरो चतुराई, जारण वूझ विप खात । नई हइ राज लाज भी जई हइ, परमव दुरगत पात ।।०२।।
१. पदवी. ६- चढइ १- सुहात.