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________________ समराइषकहा। तुषिमाडौए जौए दिहार गोवरगयाए । भणियं अवहे वसहिं 'पुढाउ ए-एकि॥ गोयरगयाउ धणियं महावतार ता य एयाई । तित्यपरवन्दणत्यं भत्तौए इसागयाई ति ॥ गणिणौए तो भणियं माड कथं धमनिहियचित्ताई। । जं एत्य भागया किञ्चमिणं नवर भवियाण ॥ जन्मा जयंमि सरणं धर्म मोत्तूण नत्यि जीवाणं । मारौरमाणमेहिं दुखहि पहियाणं ति ॥ न य मो तौरद काउं जहटियो वजिऊण मणुयक्त । तं पुण चलं धमारं सुविणयमादन्दजालममं । सण माणुमत्तं धर्म न करे जो विमयलुद्धो । दहिजण चन्दणं मो करे अङ्गारवाणिज्नं ॥ धोण मयसभावा सुहावहा होन्ति जौवलोयंमि । धोण मामयसहं लभद चिरेण परमपयं ॥ सो उण विलियराएहि भावत्रो जिणवरिन्दचन्देहिं। १५ होइ परिचिन्निएहि वि अलाहि किं ता पुलरएहि ॥ ता मुटु कयं एवं जं दटुं पागयाइ जिणयन्दे । जिणमाङदंमणारं हंदि वियारेनि दरियारं ॥ करियो य तौ धमो तुमेहि वि नवर सचिनहिं । पडिवो जिणभणियो कया य मडमंसविई या॥ १. AD TE O DEF लि. ('।
SR No.010741
Book TitleSamraicca Kaha Vol 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHermann Jacobi
PublisherAsiatic Society
Publication Year1926
Total Pages938
LanguageSanskrit, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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