SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 793
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समराइचाहा। मंक्षेपे २८ रोहल्याणोवगया काऊणं धम्मविग्धमत्थं । तुह नेहमोहियमई नियाणमेवं महापावं ॥ राया ममरमियको उप्पनो नवर जत्थ ठामि । तत्थेव मन्दभग्गा जान अहं पि नियमेण ॥ तो इयवहं पविट्ठा किलिङ्कचित्ता य नवर मरिऊण। ' जत्थेव तुम नरण दमो वि तत्थेव उववत्रा । मत्तरममागराऊ गमित्रो दखण कहवि तुमहिं । तत्य अहाउयकालो निम्बिग्गेहि भौएहिं ॥ उम्पट्टिऊण य तुमं निरयात्रो पुखरद्धभरहमि । जात्रो मि गहवरसुत्रो 'वेला दरिहगेहमि ॥ एमा वि तुझ जाया तत्येव च भारहमि वासमि । जाया दरिद्दधूया नवरं तुझं मजाईए ॥ कालेणा दोलि वि तो तुझे बह जोव्वर्ण उवगयाई । जात्रो य कहवि नवरं तत्य वि तुम्हाण वौवाहो ॥ नेहवसेण य तुमे तत्थ वि दारिददकविमुहाई। " चिट्ठह जहासुहेणं पन्नोन बद्धरायाई ॥ पर नया य दिट्ठा नियए गेहमि पछमाणेहिं । तुहि माहुणैत्रो ममुयाणकए पविट्ठात्रो ॥ रट्टण तो तानो महासंवेगपयङपुलएहिं । परिवाशियाउ फासुभिकादायण विधिपुर्ण । MA ॥ विकार, CE पार, चिनार . सजानौया। .) तुमे। .
SR No.010741
Book TitleSamraicca Kaha Vol 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHermann Jacobi
PublisherAsiatic Society
Publication Year1926
Total Pages938
LanguageSanskrit, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy