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जब सम्पूर्ण तत्त्व का तात्त्विक निर्णय होता है तब समस्त अनुष्ठान तात्त्विक बनते हैं । इस प्रकार के तात्त्विक अनुष्ठान तुरन्त शाश्वत सुखदायक : सिद्ध होते हैं।
जिन-जिन महापुरुषो ने मुक्ति प्राप्त की है, प्राप्त कर रहे हैं अथवा जो प्राप्त करेंगे वे समस्त इस असग-अनुष्ठान के द्वारा ही करेंगे, यह बात निस्सन्देह है।
प्रारम्भ प्रीति से, प्रगति भक्ति मे और सिद्धि प्रसग से यह क्रम है और तत्पश्चात् विनियोग की कक्षा आती है।
साधक की अद्भुत स्थिरता
आत्म-स्वभाव मे लीन सांधक को चित्त अडोल एव मेरुवत् निष्कप होता है। उसमे देह-भाव का अश भी नही होता, परन्तु प्रात्म-ज्ञान का अखण्ड साम्राज्य होता है।
इसलिये ही तो इस प्रकार की दशा मे मग्न खधक मुनिवर अपने देह की चमडी उतार ली जाने पर भी स्वभाव मे मग्न रहे अटल रहे । वे पर भाव मे फिसले नही।
श्री गजसुकुमाल मुनिवर के सिर पर खेर के जलते अगारो से परिपूर्ण ठीब रखा गया तो भी वे प्रात्म-मस्ती मे मस्त रहे, क्योकि देह पर-पदार्थ है
और आत्मा स्व-पदार्थ है । उनके लिये यह सत्य अस्थि-मज्जावत् हो गया था, यह सत्य उनके साढे तीन करोड रोमो मे पूर्णत परिणत हो गया था।
इस प्रकार की स्व-परिणति स्वात्म-रमणता के पश्चात् ही प्रकट होती है ।
इस प्रकार की असग दशा मे स्थित योगी को यदि खधक मुनिवर के पांच सौ शिष्यो की तरह कोल्ह मे पेला जाये तो भी उनका चित्त आत्म
मिले मन भीतर भगवान
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