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यह न्याय सर्वथा उचित ठहरने का कारण प्रात्मा मे परमात्म तत्व का अस्तित्व है जो परमात्मा के ध्यान के प्रभाव से प्रकट होता है।
'सिरि सिरिवाल कहा' मे वर्णन पाता है कि 'जव श्रीपाल राजा श्री नवपद के ध्यान मे तादात्म्य हो जाते हैं तब उन्हे सम्पूर्ण विश्व नवपदमय प्रतीत होता है' यह वाक्य भी महान अनुभव योग को प्रस्तुत करता है ।
श्री जिनेश्वर प्रभु के ध्यान मे लीन माधक को अपनी आत्मा और आगे जाकर सम्पूर्ण विश्व जिनमय प्रतीत होता है।
पूज्य श्री सिद्धसेन दिवाकर मूरीश्वरजी महाराजा ने शकस्तव मे इस वात की ही पुष्टि की है।
जिनो दाता जिनो भोक्ता, जिनः सर्वमिद जगत् । जिनो जयति सर्वत्र, यो जिन सोऽहमेव च ।।
अर्थ -जिन दाता एव भोक्ता है, सम्पूर्ण विश्व जिनेश्वरमय है । जिनेश्वर की सर्वत्र जय होती है और जो जिनेश्वर है वह मैं ही हूँ।
असग दशा, निर्विकल्प दशा • पी अनालम्बन-योग अथवा सामर्थ्य-योग सब पर्यायवाची हैं।
इस प्रकार के सामर्थ्य-योग के द्वारा परमात्मा को किया गया एक ही नमस्कार मनुष्य का ससार-सागर से उद्धार कर देता है । यह वात 'सिद्धाण बुद्धाण' सूत्र मे 'इक्कोवि नमुक्कारो' गाथा द्वारा स्पष्ट की गई है।
इस दशा मे जब तात्त्विक रीति से प्रात्म-तत्त्व का निर्णय होता है तव ही तात्त्विक रीति से परमात्म-तत्त्व का निर्णय हो सकता है और जब तात्त्विक रीति से आत्मा एव परमात्मा का निर्णय हो जाता है तब ही अन्य समस्त तत्त्वो का तात्त्विक निर्णय होता है।
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मिले मन भीतर भगवान