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________________ हे प्रभो ! सवेग, निर्वेद भाव की दिव्य ज्योति मेरे मन-मन्दिर मे नित्य जगमगाती रखें और प्रत्येक भव मे मुझे आपके परम तारणहार शासन तथा उसके स्वरूप को समझाने वाले सुगुरु का सुयोग कराकर मेरी साधना मे "प्राणो का संचार करें और आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें कि जिससे मैं मुक्ति के अधिकाधिक समीप पहुँचता जाऊँ और अन्त मे मुक्ति प्राप्त करके आपके साथ शाश्वत मिलन सिद्ध कर लू, आपके साथ एकरूप बन जाऊँ। परम दयालु परमात्मा को इस प्रकार बार-बार भाव-सिक्त निवेदन करता हुआ साधक अपनी इच्छा-पूर्ति मे विलम्ब होता देखते हुए भी तनिक भी निराश हुए विना अपने निश्चय पर अटल रह कर, अखण्ड भक्ति, श्रद्धा एव तदनुरूप पुरुषार्थ करता हुआ वह स्वरूप-साधना मे प्रगति करता ही रहता है । वह आत्मा के पूर्ण-विशुद्ध स्वरूप की साधना में मग्न रहता है। परम वात्सल्यवान परमात्मा के प्रति इतनी अनुपम प्रीति साधक को साधना करने की शक्ति प्रदान कर उसे सिद्धि के अधिक समीप ले जाती है। यह प्रभु-प्रेम ही समस्त साधना का उद्भव-स्थल है, जिसमे से समस्त प्रकार की उत्तम साधनायो का प्रादुर्भाव होता है । ज्ञान से तो परमात्मा को पहचाना जा सकता है, परन्तु प्राप्त तो उसे प्रीति से ही किया जा सकता है । andra मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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