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आप अजर और अमर हैं और मै तो जरा एव मृत्यु के भय से घिरा हुआ हूँ।
___ आप अनन्तनान्त गुणो से पूर्ण है और मैं तो अनन्तानन्त अवगुणो से , पूर्ण हूँ।
हे परमात्मा ! इस प्रकार आपके और मेरे मध्य विराट अन्तर है, जितना अन्तर मेरु पर्वत और सरसो के दाने के मध्य है, धरती और नभ के मध्य है, अमृत और विष के मध्य है, उनसे भी अधिक अन्तर हे प्रभो ! आपके और मेरे मध्य है।
तो हे प्रभु ! आपके साथ मेरा मेल कैसे बैठेगा ? परस्पर की प्रीति किस प्रकार अभग होगी ? अन्योन्य की समीपता किस प्रकार स्थिर रहेगी ?
हे प्रभो ! क्या मैं आपसे प्रेम करने के लिये योग्य नही हूँ ? क्या आपकी प्रीति प्राप्त करने की मुझ मे पात्रता नही है ?
नही नहीं प्रभो! यह अन्तर पुकार-पुकार कर कह रहा है कि केवल आपके प्रेम के प्रभाव से, आपकी अदृश्य एव अकल्पनीय तारक शक्ति के बल से मैं इस विराट् अन्तर को अवश्य भेदकर आपके बिल्कुल समीप पहुंच जाऊँगा । यद्यपि यह कार्य सुसाध्य तो नही है, परन्तु असाध्य भी नही है, फिर भी कष्ट-साध्य (दु साध्य) अवश्य है।
हे प्रभो ! इस दु साध्य कार्य को साध्य करने के लिये मैं भगीरथ पुरुपार्थ कगा। मैं अपनी समग्रता को आपके पूर्ण प्रेम मे ढाल कर इस विराट भेद को खोल कर ही दम लूगा । चाहे यह कार्य करने मे कदाचित् अनेक दिन, महीने, वर्ष अथवा कदाचित् अनेक जन्म व्यतीत करने पडें, परन्तु
आपको प्राप्त करने का अपना श्रेष्ठ पुरुषार्थ अबाध गति से मैं प्रारम्भ ही रखूगा। आप नित्य मुझ पर कृपा की दृष्टि करते रहे, नित्य मेरी राह मे ज्योति विखेरते रहें। इस भीषण भव-बन मे जब तक मेरा परिभ्रमण चलता रहे तब तक हे प्रभो ! आप अपना पवित्र सहयोग मुझे प्रदान करके अशुभ वासनाओ एव वृत्तियो से मेरी रक्षा करते रहें।
मिले मन भीतर भगवान
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