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समस्त भौतिक सुखो के उपभोग का यही करुण परिणाम प्राप्त होता है, फिर भी बाह्य सुख की कामी एव रागी आत्मा अधिकाधिक भौतिक सुखों की प्राप्ति एव उपभोग के लिये रात-दिन प्रयत्न करती रहती है।
समस्त प्रकार के भौतिक सुख शर्करा लिप्त (Sugar-coated) विष की गोली तुल्य घातक हैं । वे ऊपर से मधुर और भीतर से विष तुल्य कटु हैं । अत उनसे प्रात्मा को शान्ति एव तृप्ति प्राप्त नहीं हो पाती।
इन्द्रियो को प्राप्त होने वाले अभीप्सित रूप, रस, गध, स्पर्श एव शब्द के विषयो से मोहाधीन आत्मा सुख प्राप्ति के भ्रम मे मग्न होती है, परन्तु उसका वह भ्रम वस्तुत भ्रम ही है, क्योकि रूप, रस, गध, स्पर्श और शब्द पुद्गल के धर्म हैं । उनसे आत्मा को सुख प्राप्त हो सकता है क्या ? कदापि नही, पुद्गल से पुद्गल तृप्त होता है, प्रात्मा नही।
आत्मा को तृप्त एव पुष्ट करने के लिये उसके गुण-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, समता, मृदुता, सन्तोष आदि मे मन को तल्लीन कर देना चाहिये, उनसे अपने जीवन को गुम्फित करना चाहिये ।
वाह्य सुखो के पीछे ही निरन्तर पागल की तरह दौडते हुए मानव ने अपनी आन्तरिक भूख के लिये एकान्त मे शान्त-चित्त बैठकर क्या कभी सोचा है कि इतना-इतना प्राप्त करके और उसका उपभोग करके भी मुझे आन्तरिक शान्ति एव तृप्ति का अनुभव क्यो नही होता?
विवेकी, चिन्तक मनुष्य के समक्ष जब यह प्रश्न उपस्थित होता है तव किसी नवीन दिशा की अोर शान्ति की खोज में उसका मन प्रेरित होता है,
आत्मिक शान्ति एव तृप्ति प्राप्त करने की उसको लगन लगती है और उसकी लगन मे तीव्रता पाते ही उसे किसी ऐसे सत, महन्त अथवा ग्रन्थ से साक्षात्कार हो जाता है जो उसकी भीतरी भूख के लिये उचित पथ-प्रदर्शक बन जाता है।
सुख प्रात्मा मे रहता है, पुद्गल मे नहीं।
सयोगजनित पौद्गलिक सम्बन्ध अथवा पदार्थ आन्तरिक शान्ति अथवा तृप्ति कदापि नही दे सकते । सुख, शान्ति एव आनन्द प्रात्मा का स्वभाव है।
मिले मन भीतर भगवान