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(२११) जिनहर्पजी महाराज उपरके फिररेमें बयान फरमाते हैं कि चिना खाये बिना भोग विदुन और विना किये ही मनुष्य वाती यातमें कर्म चीकने करलेता है और आर्च रौद्र व्यानमें मगन रहकर तत्त्वको स्मरण नहीं करता, वास्ते ग्निहर्पजी महाराज कहते हैं कि हे जिनजी? मनको वशमें रखनेलिये क्या उपाय करना चाहिए और जब हमसे कोई उपाय नहीं होगा तो भी हे परमात्मा' मुज पापीपर दबाकरके ससार रूपी समुद्रसे तिरादेना यही पारवार वीनती है
हे सभ्यो ? महात्मा आनदधनजीकी तरह वा श्री जिन हर्षमुरिजीकी तरह आपनभी कभी अपने मनको समझानेका श्यन्न किया है ? या मन में नही रहनेकी हालतम विश्वोएकारक परमात्मासे सभी वीनती की हो तो स्मरण करो अरे पाठक । पूर्वाचा!का अनुकरण करनेकी तुम्हारी खास फर्ज है और तुम बडे बडे द्रष्टात सुनते हो मगर उनका अनुकरण नहीं करते यद्द तुम्हारे हक्में ठीक नहीं है हे मनुप्यो ' तुमने श्रीगुरुमहाराजकी अमृत-मय देशनासे श्रवण किया होगा कि मनको वशमें न करनेसे नटणीके साथ विपय भोगकी लालसासे पुल भ्रष्ट कराथा उसी नटवेकै स्वरूपमें नाचनेवाले एलायची कुमरने मनको वश किया तो नाचते नाचते केवलज्ञान प्रगट हो गया हेभाई नृत्यकलामें मनको एकाग्र नहीं कियाथा, मगर एलायची