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( १११) कर खुल्ले बदन वनार व गली कुचोंमें फिरता है तो उस्के - शेरपर रज उठकर चीमटती है. इसी तरह राग देष मोह आदि मानिंद स्निग्य वस्तुके है, इनके द्वारा आत्मापर कर्म रुप-रज घहती है क्योंकि आठ रुचक प्रदेशके सिवाय आत्माके असख्य प्रदेशोमेहि मोहादि भावना उठती है इस लिये आठ रुचक प्रदेशोंके सिवाय सबके सर प्रदेशोंपर कर्म पुद्गल सपन्न कर लेते है इस वन्य तत्त्वके मुख्यतया दो भेद होते है एक शुभ चव और दुसरा अशुभ बन्ध, अगर प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेशके हिसारसे लिये जायतो चारभेद होते है, प्रकृति नाम सभावका है, जैसे ज्ञानावर्णीय कर्मका स्वभाव ज्ञानको रोकनेका है, दर्शनावरणीयका दर्शनको इत्यादि. और स्थिति नाम कार मर्यादाका है, अमुक कर्मक वन्यकी इतनी स्थिति है और जमुकमी इतनी इत्यादि अनुभाग नाम रसका है तिनति तर एकठाणीया दोठाणीया आदि समझना और मदेशनामकर्मदलोंके सचयका है इस्का विस्तार कम ग्रन्य व कर्मयडीसे समझ सक्ते हो । इति हे यवन्ध तत्त्व ।। अप आठवा तत्व निजरा है । इम्मा स्वरुप ऐसे है "वद्वस्य कर्मण साटोयस्तु सा. निर्जरामता" यानि जीकेसाथ ताल्लुक वाले फेलों (मी) का बारह तरहकी तपश्चर्या के जरीय जीमें अलादा करना इसे निर्जरा तच त है इसके दो भेद है, एक समाम निरा दुसरी जगाम निर्जग, इनमें प्रथम भेद चारिसके पालन रने