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(११०) क्रोध, मान, माया, लोभ, इन चारोंको रोक सक्ते हैं, तथा मन गुप्ति, वचन गुप्ति और कार्य गुप्तिद्वारा, मन, वचन, कायाके शुभाशुभ व्यापारको रोक सक्ते हैं। मतलब-कर्मोको ग्रहण करनेवाले हेतुओंके परिणामका अभाव करनेवाले तरीकोंका नाम संवर हैं । संक्षेपतः-इस्के देश और सर्व येह दो भेद है, मगर यति धर्म वाइस परिष हे आदिकी अपेक्षा इस्केभी अने. क प्रकार हो जाते हैं। सो अन्य शास्त्रोंसे जान लेने ! इति उपादेय संवर तत्वं ।। इस्के वाद सातमा तत्व बंध है “ बन्यो जीवस्य कर्मणः" यानि कर्म पुद्गलोका क्षीरनीरकी तरह जीव के साथ संवन्ध होना इस्को वन्ध कहते हैं अथवा बंधा जाता है। आत्मा जिसकर उसे वन्ध कहते हैं, इस्का ग्रहण कर्ता सं. सारी जीव है
पाठकगण-हाथ वगैरा सामग्रीसे रहित आत्मा कर्मोको कैसे ग्रहण करसकेगा ! क्योंकि वो अमूर्त है.
लेखक-आपका शक करना बिलकुल फजुल है. यतः हम कब कहते हैं कि संसारी जीव अमुर्त है ? संसारी जीवके साथ क्षीर नीरकी तरह कर्मों के मेलाप होनेसे हम कथांचित् इस्को मुर्त मानते हैं और कर्म हाथसे पकडने लायक चीजही नहीं है इस लिये इस्के ग्रहण करनेकी विधी नीचे मुजव समझे । जैसे कोइ पुरुष अपने शरीरपर स्निग्य वस्तु ( तैलादिक ) लगा