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आज के जड़ीय विज्ञान में ध्वनि को विद्युत का एक रूप माना गया है, परन्तु भारतीय तत्त्व-वेत्ता विद्युत् को भी ध्वनि का ही एकरूप मानते हैं, मूल विद्युत नहीं ध्यनि है । मन्त्रोच्चारण करते समय साधक के रोम-रोम से ध्वनि की विद्युत रूप धारा चारों ओर फैलने लगती है। विशेष साधक जो साधना के रहस्य-सिन्धु की गहराइयों तक पहुंच जाते हैं वे विभिन्न आसनों एवं विभिन्न मुद्राओं द्वारा ध्वनि अर्थात् शारीरिक विद्युत-धारा को इस प्रकार नियन्त्रित कर लेते है कि जैसे गहन अन्धकार में सहसा बिजली के चमकने से सब कुछ प्रत्यक्ष हो जाता है, वैसे ही उनके सामने सार्वभौम सत्य अपने समग्र रूप में एक साथ प्रकट हो जाता है, इसी को वैदिक परम्परा 'पूर्णमदः पूर्णमिद' आदि रूपों में पूर्ण ज्ञान कहती है और जैन परम्परा उस समग्र सत्य के साक्षात्कार को केवल ज्ञान कहती है । इस केवल ज्ञान और पूर्ण ज्ञान के मूल में जो ध्वन्यात्मक विद्युत प्रवाह है उसका मूल स्रोत मन्त्र ही है। ___जिस प्रकार रेडियो यन्त्र में तारों को विशिष्ट विधि से सयुक्त कर देने पर उनमें ध्वनि-प्रसारण की क्षमता जागृत हो जाती है, ठीक उसी प्रकार मानवीय शरीर में भी प्रकृति ने नसों-नाड़ियों और शिरात्रों आदि को इस प्रकार से परस्पर सम्बद्ध किया हुआ है जिससे उनमें ध्वनि-नियंत्रण ध्वनि-प्रसारण और ध्वनि-उत्पादन मादि की सर्व क्षमताएं
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