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प्राकृत लाल
६६ प्राकृत साहित्य का इतिहास विषयों की चर्चा इस बृहत् ग्रन्थ में पाई जाती है। पन्नवणा, जीवाभिगम, ओववाइय, रायपसेणइय और नन्दी आदि सूत्रों का बीच-बीच में हवाला दिया गया है। विषय को समझाने के लिये उपमाओं और दृष्टान्तों का यथेष्ट उपयोग किया है। कहीं विषय की पुनरावृत्ति भी हो गई है। किसी उद्देशक का वर्णन बहुत विस्तृत है, किसी का बहुत संक्षिप्त | विषय के वर्णन में क्रमबद्धता भी नहीं मालूम होती, और कई स्थलों पर विषय का स्पष्टीकरण नहीं होता। चूर्णीकार तक को अर्थ की संगति नहीं बैठती। सब मिलाकर इस सूत्र में ४१ शतक हैं, प्रत्येक शतक अनेक उद्देशकों में विभक्त है। अभयदेवसूरि ने इसकी टीका लिखी है जिसे उन्होंने विक्रम संवत् ११२८ में पाटण में लिखकर समाप्त किया था। टीकाकार के काल में आगमों की अनेक परंपरायें विच्छिन्न हो चुकी थीं, इसलिये चूर्णी' और जीवाभिगम-वृत्ति आदि की सहायता से संशयग्रस्त मन से उन्होंने यह टीका लिखी। वाचना-भेद के कारण भी कम कठिनाई नहीं हुई। अभयदेव के अनुसार भगवतीसूत्र में ३६ हजार प्रश्न हैं और २ लाख ८८ हजार पद । लेकिन समवायांग और नन्दीसूत्र के अनुसार पदों की संख्या क्रम से ८४ हजार और १ लाख ४४ हजार बताई गई है। इस पर . अवचूर्णी भी है । दानशेखर ने लघुवृत्ति की रचना की है।
पहले शतक में दस उद्देशक हैं। इनमें कर्म, कर्मप्रकृति,शरीर, लेश्या, गर्भशास्त्र, भाषा आदि का विवेचन है, और तीर्थकों के मतों का उल्लेख है । ब्राह्मी लिपि को यहाँ नमस्कार किया है।
१. मुनि पुण्यविजयजी से पता लगा कि व्याख्याप्रज्ञप्ति की एक अति लघु चूर्णी प्रकाशित होने वाली है।
२. भाषाशास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से पिशल ने इस सूत्र की संज्ञा और धातुरूपों के अध्ययन को महत्वपूर्ण बताया है। प्राकृतभाषाओं का व्याकरण, पृ० ३४।
३. बहुत संभव है कि जैन भागों की यह लिपि रही हो।