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प्राकृत साहित्य का इतिहास सुरआवसाणरिलिओणआओ सेउल्लक्षणकमलाओ। अद्धच्छिपेच्छिीओ पिआओ धण्णा पुलोति ॥
(शृङ्गार०५४, ५) सुरत के अन्त में जिन्होंने अपने लोचनों को बन्द कर लिया है, जिनका मुखकमल स्वेद से आर्द्र हो गया है और अर्ध नेत्रों से जो देख रही हैं ऐसी प्रियाओं को भाग्यशाली पुरुष ही देखते हैं ।
सुहअ.! विलम्बसु थोरं जाव इमं विरहकाअरं हिअअं। संठविऊण भणिस्सं अहवा वोलेसु किं भणिमो ॥
(अलङ्कार पृ० १४०) हे सुभग ! जरा ठहर जा, विरह से कातर इस हृदय को संभाल कर कुछ कहूँगी, अथवा जाओ, अब कहूं ही क्या ?
सुरकुसुमेहि कलुसि जइ तेहिं चिअ पुणो पसाएमि तुसं। तो पेम्मस्स किसोअरि ! अवराहस्सं अ ण मे कजं अणुरूअं॥
(स० कं०५, २८७) देवताओं के पुष्पों द्वारा कलुषित तुझे यदि मैं फिर से उन्हीं के द्वारा प्रसन्न करूँ तो हे कृशोदरि ! यह न तो प्रेम के ही अनुरूप होगा और न अपराध के ही।
सुरहिमहुपाणलम्पडभमरगणाबद्धमण्डलीबन्धम् ।। कस्स मणं णाणन्दइ कुम्मीपुटट्ठिभं कमलम् ॥ (स० सं० १,६९)
सुगंधित मधुपान से लंपट भौंरों के समूह से जिसका मंडल आबद्ध है ऐसा कछुए के पृष्ठ पर स्थित कमल किसके मन को आनंदित नहीं करता ? (युक्तिविरुद्ध का उदाहरण)
सुबइ समागमिस्सइ तुज्झ पिओ अज पहरमित्तेण । एमेय किमिति चिट्ठसि सा सहि ! सजेसु करगिजं ॥
(काव्या०, पृ० ६१, ३२, काव्य० प्र०३, १९) हे सखि ! सुनते हैं कि तुम्हारा पति पहर भर में आने वाला है; फिर तुम इस तरह क्यों बैठी हो ? जो करना हो झट कर डालो।
सुहउच्छअंजगं दुल्लहूं वि दूराहि अम्ह आणन्त । उअआरअ जर ! जीविणेन्त ण कआवराहोसि ॥
(स० के०४, ११६; गा० स० १,५०) कुशल पूछने वाले दुर्लभ जन को दूर से मेरे पास लाने वाले हे उपकारक ज्वर ! अब यदि तू मेरे जीवन का भी अपहरण कर ले तो भी तू अपराधी नहीं समझा जायेगा ! ( अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार का उदाहरण )
सेउल्लिअसवंगी णामग्गहणेण तस्स सुहअस्स। दूई अप्पाहेन्ती तस्सेअ घरं गणं पत्ता ॥
(स० कं०५, २३१, गा० स०५,४०)