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. अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७७९ साहीणे वि पिअअमे पत्ते विखणे ण मण्डिओ अप्पा। दक्खिअपउत्थवइ सअज्झिा सण्ठवन्तीए॥
(स० के० ५, २६४, गा० स० १,३९) प्रियतम के पास रहने और उत्सव आने पर भी उस नायिका ने वेशभूषा • धारण नहीं की,क्योंकि उसे प्रोषितभर्तृका अपनी दुखी पड़ोसिन को सान्त्वना देनी थी।
साहती सहि ! सुहयं खणे खणे दुम्मिया सि मज्झकए। सब्भावनेहकरणिजसरिसयं दाव विरइयं तुमए॥
(काव्या० पृ० ६२, ३६; काव्य प्र० २, ७) - हे सखि ! मेरे लिये उस सुभग को क्षण-क्षण में मनाती हुई तुम कितनी विह्वल हो उस्ती हो ! भेरे साथ जैसा सद्भाव, संह और कर्तव्यनिष्ठा तुमने निभायी है, वैसी और कोई निभा सकती है ? ( यहाँ अपने प्रिय के साथ रमण करती हुई सखि के प्रति नायिका की यह व्यंग्योक्ति है)।
(लक्ष्य रूप अर्थ की व्यंजना का उदाहरण) सिजइ रोमञ्चिजइ वेवइ रच्छातुलग्गपडिलग्गो। सो पासो अज्ज वि सुहअ! तीइ जेणसि बोलीणो॥
(ध्वन्या० उ०४, पृ०६२७) हे सुभग ! उस सकरी गली में अकस्मात् उस मेरी सखी के जिस पार्श्व से लग कर तुम निकल गये थे, वह पार्श्व अब भी स्वेदयुक्त, पुलफित और कंपित हो रहा है। (विभावना अलङ्कार का उदाहरण)
सिहिपिच्छकण्णऊरा जाया वाहस्स गम्बिरी भमइ। मुत्ताहलरइअपसाहणाणं मज्झे सवत्तीण ॥
(काव्या० पृ० ४२५, ७२५, ध्वन्या० उ०२, पृ० १९०) मोरपंख को कानों में पहन शिकारी की वधू बहुमूल्य मोतियों के आभूषणों से अलंकृत अपनी सौतों के बीच गर्व से इठलाती फिरती है।
(अर्थशक्ति उद्भव ध्वनि का उदाहरण) सुप्पउ तइओ पि गओ जामोत्ति सहीओ कीस मं भणह? सेहालिआण गंधो ण देइ सोत्तं सुअह तुम्हे ॥
(शृङ्गार० ५९,३१% गा० स. ५,१२) (रात्रि का) तीसरा पहर बीत गया है, अब तू सो जा-इस प्रकार सखियाँ क्यों कह रही हैं ? मुझे पारिजात के फूलों की गंध सोने नहीं देती; जाओ तुम सो जाओ।
सप्पं दडढं चणआ ण भजिआ पंथिओ अबोलीणो। अत्ता घरंमि कुविआ भूआणं वाइओ वंसो॥
(शृङ्गार० ४०, १९४गा० स० ६,५७) सूप जल गया लेकिन चने नहीं सुने पथिक ने अपना रास्ता लिया। सास घर में गुस्सा होने लगी। यह भूतों के आगे वंशी बजाने वाली बात हुई।