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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७४१ ण वि तह छेअरआई हरन्ति पुणरुत्तराअरमिआई। जह जत्थ व तत्थ व जह व तह व सब्भावरमिआई॥
(स० के०५,३३३, गा०स०३, ७४) पुनः-पुनः परिशीलित, रति-व्यापार में अनुभव वाला ऐसा कामशास्त्रोक्त रति-व्यापार इतना आकर्षक नहीं होता जितना कि किसी भी स्थान पर और किसी भी प्रकार से अन्तःकरण के स्नेहपूर्वक किया हुआ समागम ।
णहमुहपसाहिअंगो निदाघुम्मंतलोअणो न तहा। जह निवणाहरो सामलंग! दूमेसि मह हिअयं॥
(काव्या० पृ०५६, २३) हे श्यामलांगी प्रियतमे ! नखक्षत द्वारा शोभायमान तुम्हारा शरीर और निद्रा से पूर्णित तुम्हारे नेत्र मुझे इतने व्याकुल नहीं करते जितना कि दन्तक्षत बिना तुम्हारा अधरोष्ठ।
ण हु णवरं दीवसिहासारिच्छं चम्पएहिं पडिवण्णम् । कजलकजं पिकअं उअरि भमन्तेहिं भमरेहिं ॥
(स००५,४६२) केवल चंपक के फूल ही दीपक की शिखा की भाँति प्रतीत नहीं होते, किंतु ऊपर उड़ने वाले भौरे भी काजल जैसे लगते हैं । ( अलङ्कार सङ्कर का उदाहरण )
णाराअणो त्ति परिणअपराहि सिरिवल्लहो त्ति तरुणीहिं। बालाहिं उण कोदूहलेण एमेज सञ्चविओ ॥
(अलङ्कार स०, पृ०१८) परिणीत स्त्रियों की रुचि नारायण में, तरुणियों की श्रीवल्लभ में और वालाओं की केवल कुतूहल में रहती है, यही देखा गया है।
णासं व सा कवोले अज्ज वि तुह दन्तमण्डलं बाला। उब्भिण्णपुलअवइवेढ़परिगअं रक्खइ वराई ॥
(स०कं०५,२१८ गा०स०१,९६) वह बिचारी बाला रोमांचरूपी बाड़ से युक्त अपने कपोल पर तुम्हारे द्वारा किये हुए दन्तक्षत की धरोहर की भाँति आज भी रक्षा कर रही है।
णिग्गंडदुरारोह मा पुत्तय ! पाडलं समारुहसु । आरूढ़निवाडिया के इमीए न कया इहग्गामे ॥
(कान्या०, पृ० ४००, ६६६, गा० सं०५, ६८) हे पुत्र ! गाँठ रहित और मुश्किल से चढ़े जाने योग्य पाटल वृक्ष के ऊपर मत चढ़ । इस गाँव में ऐसे कौन हैं जिन्हें ( ऊपर चढ़े हुओं को ) इस (नायिका) ने नीचे नहीं गिरा दिया। (सङ्कर अलङ्कार का उदाहरण)
णिहालसपरिघुम्मिरतं सवलन्ततारआलोआ। कामस्सवि दुन्विसहा दिहिणिवाा ससिमुहीए ॥
(स० के०५, ६३, गा० स०२,४८)