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प्राकृत साहित्य का इतिहास
वसंतशोभा अशोक के नव पल्लवों में चंचल होती है, वृक्षों के शिखरों पर चलायमान होती है और उनके पुष्पगुच्छों पर अपने चरण रखती हैं । ( दीपक अलङ्कार का उदाहरण ) णवपुण्णिमामिअङ्कस्स सुहअ ! को तं सि भणसु मह सच्चम् । का सोहग्गसमग्गा पओसरअणि व्व तुह अज्ञ ॥
( काव्य० प्र०४, ८८ )
हे सुभग ! सच-सच बताओ, नवोदित पूर्णिमा के चन्द्र के तुम कौन लगते हो ? क्या आज प्रदोषरात्रि की भाँति तुम्हारी कोई सौभाग्य सुन्दरी मौजूद है ? ( प्रतिमा अलङ्कार का उदाहरण ) णवरिअ तं जुअजुअलं अण्णोष्णं णिहिदसजलमंथरदिहिं । आलेक्खपिअं विअ खणमेत्थं तत्थ संठिअं सुअसणं ॥ (साहित्य०, पृ० १६४, कुवलयाश्वचरित ) उन दोनों की जोड़ी परस्पर अश्रुपूर्णं निश्चल दृष्टि से देग्वती हुरे, संज्ञा से शून्य केवल चित्रलिखित की भाँति वहाँ क्षण भर के लिये खड़ी रही ।
वरि अ पसारिअंगी रअभरिउप्पहपइण्णवेणीबन्धा । पडिआ उरसन्दाणिअमहिअलचक्कलइअत्थणी जणअसुआ ॥ (स० कं० ५, २०६; सेतु० ११, ६८ ) ( तत्पश्चात् ) अपने अंगों को फैला कर धूलि से भरे हुए उन्मार्ग में जिसकी खुल गई है, तथा ( नीचे की ओर मुंह करके गिरने से ) छाती के जमीन से - लगने के कारण जिसके स्तनों पर चक्र की भाँति मंडल बन गये हैं, ऐसी जनकसुता ( सीता ) भूमि पर गिर पड़ी ।
वइपहारतुहाइ तं कअं किंपि हलिअसोण्हाए ।
जं अज्जवि : जुअइजणो घरे घरे सिक्खिउं भ्रमइ ॥
(स० कं० ५,१७५ ) नवलता के प्रहार से संतुष्ट हलवाहे की पतोहू ने जो कुछ किया उसे आज भी घर-घर की युवतियाँ सीखने की इच्छा रखती हैं।
rass पहारमंगे, जहिं जहिं महइ देभरो दाउ । रोमंचदंडराई तहिं तहिं दीसइ
बहूए ॥
(स० कं० ५, ३०८; गा० स० १, २८ ) देवर जहाँ-जहाँ शरीर पर नवलता से प्रहार करने की इच्छा करता है, वहाँ
- वहाँ वधू के ( शरीर पर ) रोमांचपंक्ति दिखाई देने लगती है ।
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वि तह अणालवती हिअअं दूमेइ माणिणी अहिअम् । जइ दूरविअम्भिअगरुअरोसमज्झत्थ भणिएहिं 11
(स० कं०५, ३२५, ३८०, गा० स० ६, ६४ ) मानिनी यदि मौन धारण कर लेती है तो वह इतना अधिक हृदय को कष्ट नहीं पहुँचाती जितना कि वह अत्यधिक रोषपूर्ण स्नेहशून्य उदासीन वचनों द्वारा ।