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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७३१ हँसने लगा।' (निदर्शना, विकृत प्रपञ्चोक्ति और संकर अलंकार का उदाहरण )
घरिणिघणत्थणपेल्लणसुहेल्लिपडिअस्स होन्ति पहिअस्स। अवसउगंगारअवारविहिदिअसा सुहावेन्ति ॥
(स० के० ५, ६२, गा० स० ३, ६१) गृहिणी के घन स्तनों के पीड़न की सुखक्रीड़ा से युक्त प्रवास करने के लिये प्रस्तुत पथिक को अपशकुनरूप मंगलवार और शुक्लपक्ष के द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी के दिन सुख प्रदान करते हैं । ( रूप द्वारा रसनिष्पत्ति का उदाहरण )
घेत्तं मुच्चइ अहरे अण्णत्तो वलइ पेक्खिडं दिट्ठी। घडिदुं विहडन्ति भुआ रअम्मि सुरआअ वीसामो॥
(अलंकारसर्वस्व, पृ० १६५) ( नायिका के ) अधर का पान कर उसे छोड़ दिया जाता है, जब कि (नायिका) अपनी दृष्टि को दूसरी ओर फेर लेती है, भुजाएँ आलिंगन से विघटित हो जाती हैं-इस प्रकार सुरत में विश्राम प्राप्त होता है ।
चत्तरघारिणी पिअंदसणा अ बाला पउत्थवइआ अ। असई सअजिझआ दुग्गआअ ण हु खण्डिअं सीलं॥
(स० के०५, ४३७, गा० स० १,३६) चौराहे पर रहने वाली सुंदरी तरुणी प्रोषितभर्तृका का शील कुलटा के पड़ोस में रहने और अत्यंत दरिद्र होने पर भी खंडित नहीं होता !
(विशेषोक्ति, समुच्चय अलंकार का उदाहरण) चित्ते विहदि ण टुट्टदि सा गुणेसुं सेजासु लोट्टदि विसट्टदि दिम्मुहेसुं। बोलम्मि वट्टदि पुपवट्टदि कव्वबंधे झाणे ण टुदि चिरं तरुणी तरट्टी ॥
(काव्य प्र०८,३४३; कपूर मं०२, ४) - जितनी ही गुणों में ( वह कर्पूरमंजरी ) पूर्ण है, उतनी ही चित्र में भी दिखाई दे रही है । कभी वह ( मेरी ) शय्या पर लोटती हुई जान पड़ती है, कभी चारों दिशाओं में वही-वही दिखाई देती है। कभी वह मेरी वाणी में आ जाती है और कभी काव्यप्रबंध में दिखाई देने लगती है। वह चिरतरुणी प्रगल्भा कभी भी मेरे मन से नहीं हटती।
चमढियमाणसकञ्चणपंकयनिम्महियपरिमला जस्स। अक्खुडियदाणपसरा बाहुप्फलिह च्चिय गयन्दा ॥
(काव्या० पृ०७९, १५०) उसके हाथी, मानसरोवर के सुवर्णकमलों के मर्दित होने से (कमलों की) सुगंध को मथने वाले, और अखंडित रूप से दान (हाथी के पक्ष में मदजल ) देने वाले ऐसे भुजादंड की भाँति दिखाई देते हैं । ( रूपक का उदाहरण ) १. पिय तिय सो हँसिकै कह्यौ लख्यौ डिठोना दीन।।
चन्द्रमुखी मुखचन्द्र सों भलो चन्द्रसम कीन ॥ (बिहारीसतसई ४९१)