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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७२९ गामतरुणीओ हिअं हरन्ति पोढ़ाण थणहरिलीओ। मअणूसअम्मि कोसुम्भरंजिअकञ्चुआहरणमेत्ताओ ॥
(स० के०५, ३०३; गा० स० ६, ४५) मदन उत्सव के अवसर पर पुष्ट स्तनवाली और केवल कुसुंबी रंग की कंचुकी पहनने वाली गाँव की तरुणियाँ विदग्धजनों का मन हरण करती हैं।
गामारुहम्मि गामे वसामि अरहिई ण जाणामि । णाअरिआणं पइणो हरेमि जा होमि सा होमि ॥
(काव्य० प्र०४, १०१) हे नागरि ! मैं गाँव में ही जन्मी हूँ, गाँव की ही रहने वाली हूँ, नगर की स्थिति को मैं नहीं जानती। मैं कुछ भी होऊँ लेकिन इतना बताये देती हूँ कि नागरिकाओं के प्राणप्रिय पतियों को मैं हर लेती हूँ।
गिम्हे दवग्गिमसिमइलिआई दीसन्ति विज्झसिहराई। आससु पउत्थवइए ! ण होन्ति णवपाउसब्भाई ॥
(स० कं० ४, ८०, ५, ४०४, गा० स० १,७०) ग्रीष्मकाल में विन्ध्य पर्वत के शिखर दावानल से मलिन दिखाई देते हैं, वर्षाकाल के नूतन मेघ वे कदापि नहीं हैं, अतएव हे प्रोषितभर्तृके ! तू धीरज रख । .
(अपहृति अलंकार का उदाहरण) गिम्हं गमेइ कह कह वि विरहसिहितापिआपि पहिअवहू।।
अविरलपडतणिभरवाहजलोल्लोवरिल्लेण ॥ (शृंगार ५९, २९) विरह-अग्नि से संतप्त पथिकवधू निरंतर गिरते हुए अतिशय वाष्पजल से आर्द्र उत्तरीय वस्त्र पहन कर किसी तरह ग्रीष्मऋतु बिताती है।
गुरुयणपरवसप्पिय ! किं भणामि तुह मन्दभाइणी अहयं । अज पवासं वञ्चसि वच्च सयं च्वेव सुणसि करणिजं ॥
(काव्या० पृ० ६१, ३४, काव्य०प्र० ३, २१) हे गुरुजनों के आधीन प्रियतम ! तुमसे क्या कहूँ, मैं बड़ी अभागिन हूँ। तुम आज प्रवास पर जा रहे हो, जाओ; तुम स्वयं सुन लेना कि तुम्हारे चले जाने पर मेरा क्या हुआ । ( कालाधिष्ठित अर्थ व्यंजना का उदाहरण)
गेण्हन्ति पिअअमा पिअअमाण वअणाहि विसलअद्धाई। हिअआई वि कुसुमाउहबाणकआणेअरन्धाइं॥
(स० कं० ५,३१२) प्रियतमायें अपने प्रियतमों के मुख से कामदेव के वाग द्वारा बींधे हुए हृदयों की भाँति अभिनव कमलनाल के अंकुर ग्रहण कर रही हैं। (पक्षिमिथुन की क्रीड़ा का वर्णन है)।
गेण्हइ कंठम्मि बला चुंबइ णसणाइ हरइ मे सिअ। पढमसुरअम्मि रअणी परस्स एमेअ बोलेइ ॥ (शृंगार ६, २०)