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७१६ प्राकृत साहित्य का इतिहास
उम्मूलिआण खुडिआ उक्खिप्पंताण उज्जु ओसरिआ। णिज्जताण णिराआ गिरीण मग्गेण पत्थिआ णइसोत्ता ॥
(स० के ४, १७३; सेतुबंध ६,८१) उन्मूलित होकर खंडित, उत्क्षिप्त होकर सरल भाव से बहने वाले जोर टेढ़े मार्ग से ले जाये जाकर दीर्घ वने ऐसे नदी के प्रवाह पहाड़ी रास्तों से बहते हैं । (संबंधिपरिकर अलंकार का उदाहरण)
उरपेल्लिअवइकारिल्लआई उच्चेसि दइअबच्छलिए ।
कण्टअविलिहिअपीणुण्णअत्थणि उत्तम्मसु एत्ताहे ।। (स०कं०४८४) हे अपने प्रियतम की लाड़ली ! तू ही अपने वक्षस्थल से बाड़ को मईन कर करवेल्ली के फल तोड़ने गई थी जिससे तेरे पीन और उन्मत्त स्तन काँटों से क्षत हो गये हैं, अब तू संताप को प्राप्त हो ( इसमें दूसरे किसी का क्या दोष ?)
उल्लाअइ से अंगं ऊरु वेवन्ति कूवलो गलइ।।
ऊच्छुच्छुलेइ हिअअंपिआअमे पुप्फवइआइ ॥ (स० कं०५, २४५) प्रिय के आने पर पुष्पवती ( रजस्वला ) का अंग स्वेदयुक्त होने लगता है, जंघा कंपित होने लगती है, जघन का वस्त्र गलित हो जाता है और हृदय थरथर काँपने लगता है।
उवहइ णवतिणंकुररोमञ्चपसाहिआई अंगाई। पाउसलच्छीए पओहरेहि पडिवेल्लिओ विंझो॥
(स० के ५, १४; गा० स०६, ७७) प्रावृट शोभा (वर्षा ऋतु ) के पयोधरों ( स्तन अथवा बादल ) से पीड़ित विन्ध्य पर्वत नूतन तृणांकुर रूपी रोमांचों से मंडित शरीर को धारण करता है। (रूपक अलंकार का उदाहरण)
उवहइ दइअगहिआहरोहझिजन्तरोसपडिराअम् । पाणोसरन्तमइरं चस व णिशं मुहं बाला ।।
(स० कं५, १८९; गउड० ६९०) प्रीतम के द्वारा अधरोष्ठ ग्रहण करने से जिसके रोष की लाली फाफी पड़ गई है ऐसी नायिका का मुख मदिरा से आरक्त मदिरा-पात्र की भाँति प्रतीत हो रहा है।
ए एहि किंपि कीएवि कएण णिकिव ! भणामि अलमहवा । अविआरिअकज्जारंभआरिणी मरउ ण भणिस्सम् ॥
(काव्य० प्र० १०, ४७१) अरे निष्ठुर ! जरा यहाँ तो आ, मुझे उसके बारे में तुझसे कुछ कहना है; अथवा रहने दे, क्या कहूँ ! बिना विचारे मनमाना करने वाली यदि वह मर जाय तो अच्छा है, अब मैं कुछ न कहूँगी । ( आक्षेप अलंकार का उदाहरण ) . ए एहि दाव सुन्दरि ! कण्णं दाऊण सुणसु वाणिज्जम् । तुज्झ मुहेण किसोअरि ! चन्दो उअमिज्जइ जण ॥
(काव्य प्र० १०,५५४)