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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७१५ उज्झसि पिआइ समों तहवि हु रेण भणसि कीस किसिअंति। उवरिभरेण अ अण्णुअ! मुअइ बइल्लोवि अंगाइम् ॥
(सं० कं०४, १३०, गा० स०३,७५) प्रिया के द्वारा तू वहन किया जाता है और फिर भी तू उसी से पूछता है कि तू कृश क्यों हो गई है ! हे नादान ! अपने ऊपर भार लादने से तो बैल भी कृश हो जाता है । (सहोक्ति अलंकार का उदाहरण)
उहन्तमहारम्भे थणए दळूण मुद्धबहुआए। ओसण्णकवोलाए णीससि पढमघरिणीए ॥
(स० कं५३८७; गा० स०४,८२) मुग्धा वधू के आरम्भ से ही उठावदार स्तनों को देखकर सूखे कपोल वाली पहली पत्नी सांस मारने लगी।'
उत्तंसिऊण दोहलविअसिआसो अमिन्दुवदणाए। विरहिणो णिप्फलकंकेल्लिकरणसद्दो समुप्पुसिओ ॥(स० कं० ५, ३०५) चन्द्रमुखी ने अपने पाद के आघात से अशोक को विकसित कर के मानो ब्रह्मा के फलविहीन अशोक वृक्ष के सर्जन को ही निरर्थक कर दिया है।
उदित्तरकआभोआ जह जह थणआ विणन्ति बालाणम् । तह तह लद्धावासो ब्व मम्महो हिअअमाविसइ॥
(ध्वन्या०३, ४, पृ०६०४) फैले हुए केशों के विस्तार से आच्छादित वालिकाओं के स्तन जैसे-जैसे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे मानो अवसर पाकर कामदेव हृदय में प्रवेश करता है।
उखुच्छो पिअइ जलं जह जह विरलंगुली चिरं पहिओ। पाआवलिआ वि तह तह धारं तणुअंपि तणुएइ ।
(स० के० ३,७३; गा० स०२,६१) जैसे-जैसे पथिक अपनी उंगलियों को विरल करके आँखों को ऊपर उठाकर (पानी पिलाने वाली को देखने के लिए) बहुत देर तक पानी पीता है, वैसे-वैसे प्याऊ पर बैठकर पानी पिलाने वाली भी पानी की धार को कम-कम करती जाती है । ( अन्योन्य और प्रतीयमान अलंकार का उदाहरण)
उप्पहजायाए असोहिणीए फलकुसुमपत्तरहिआए। बोरीए वई देन्तो पामर ! हो हो हसिजिहसि ॥
(काव्यानु० पृ० ३६०, ५४७, ध्वन्या० उ०३, पृ० ५४२) हे पामर ! कुमार्ग ( अधम कुल ) में उत्पन्न, अशोभनीय (कुरूप) तथा फल, पुष्प और पत्तों ( संतान ) से रहित ऐसी बेरी (स्त्री) की बाड़ लगाने ( स्त्री को अपने घर में बसाने ) वाले पुरुष का लोग उपहास करेंगे।
(अप्रस्तुतप्रशंसा का उदाहरण) १. बाढ़तु तो उर उरज भर भरि तरुनई विकास। बोझनु सौतिनु के हिय आवति सैघि उसास ॥ (बिहारीसतसई ४४९ )