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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७११ कुलटा स्त्रियों को नमस्कार है, जिनके दर्पण के समान हृदयों में जो सामने उपस्थित है, वही हूबहू प्रतिबिंवित भी होता है ।
असमत्तो वि समप्पा अपरिग्रहिअलहुओ परगुणालावो । तस्स पिआपडिवड्ढा ण समप्पइ रइसुहासमत्ता वि कहा ॥
(स० के०५,३४०) अतिशय महान् दूसरे के गुणों की प्रशंसा असमाप्त होकर भी समाप्त हो जाती है, लेकिन उसकी प्रियतमा के रतिसुख की कथा कभी समाप्त नही होती।
असमत्तमण्डणा चिअ वच्च घरं से सकोउहल्लस्स। बोलाविअहलहलअस्स पुत्ति ! चित्ते ण लग्गिहिसि ॥
(स० कं०५, १७४; गा० स० १, २१) हे पुत्रि! तू अपने साज-शृङ्गार के पूर्ण हुए बिना ही ( तेरी प्रतीक्षा में) उत्सुकता से बैठे हुए अपने प्रिय के घर जा। उसकी उत्सुकता शिथिल हो जाने पर फिर तू उसके मन न भायेगी।
अह तइ सहत्थदिण्णो कह वि खलन्तमत्तजणमझे। तिस्सा थणेसु जाओ विलेवणं कोमुईवासो ॥
(स० के०५,३१४) पूर्णिमा की ज्योत्स्ना किसी नायिका के स्तनपृष्ठ पर पड़ रही है, मालूम होता है कि स्खलित होते हुए मदोन्मत्त लोगों के बीच में किसी नायक ने अपने हाथों से उसके स्तनों पर लेप कर दिया है।
अह धाविऊण संगमएण सम्बंगिरं पडिच्छन्ति । फागुमहे तरुणीओ गइवइसुअहत्थचिक्खिलं ॥
(स० के०५,३०४) एक साथ दौड़कर युवतियाँ, फाग के उत्सव पर, गृहपति के पुत्र के हाथ की कीचड़ को अपने समस्त अङ्ग में लगवाने के लिए उत्सुक हो रही हैं।
अहयं लज्जालुइणी तस्सवि उम्मन्थराइं पिम्माई। सहिआअणो अनिउणो अलाहि किं पायराएण ॥
(काव्यानु० पृ० १५५, १७५; गा० स०२, २७) मैं तो शरमाली हूँ, और उसका प्रेम उत्कट है; मेरी सखियाँ ( जरा से निशान से ) सब कुछ समझ जाती हैं। फिर भला मेरे चरणों के रंगने से क्या लाभ ? (रतिक्रीड़ा के समय पुरुष के समान आचरण करने वाली नायिका की यह उक्ति है।) (व्याजोक्ति अलंकार का उदाहरण)
अह सा तहिं तहिं बिअ वाणीरवणम्मि चुक्कसंकेआ। तुह दंसणं विमग्गइ पन्भट्टणिहाणठाणं व ॥
(स०कं०५,४००% गा०स०४, १८) उसी बेंत के वन में दिये हुए संकेत को भूलकर वह, निधिस्थल को भूले हुए व्यक्ति की भाँति, तुम्हारे दर्शन के लिए इधर-उधर भटकती फिर रही है।