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७१० प्राकृत साहित्य का इतिहास .
अवसहिअजणो पइणा सलाहमाणेण एच्चिरं हसिओ। चन्दो ति तुझ मुहसंमुहदिण्णकुसुमंजलिविलक्खो॥
(स० ० ५, २९८; गा० स० ४, ४६) तुम्हारे रूप के प्रशंसक तुम्हारे पति के द्वारा, तुम्हारे मुख को चन्द्रोदय समझकर उसे कुसुमांजलि प्रदान करने के कारण लज्जित जन परिहास का पात्र हुआ।' (भ्रान्तिमान अलंकार का उदाहरण )
अविअपेच्छणिजेण तक्खणं मामि ! तेण दिट्टैण। सिविणअपीएण व पाणिएण तण्हचिअ ण फिट्टा ॥ (शृंगार ४,५) हे मामी ! उस क्षण अवितृष्ण नयनों से उसे देखने से ऐसा मालूम हुआ जैसे स्वप्न में जल का पान किया है और उससे तृष्णा ही नहीं बुझी।
अविभाविअरअणिमुहं तस्स अ सच्चरिअविमलचन्दुजोअम् । जाअं पिआविरोहे बद्धन्ताणुसअमूढलक्खं हिअअम् ॥
(स० कं०५, २०३) सन्ध्याकाल बीत जाने पर, सच्चरित्र रूपी निर्मल चन्द्रमा के प्रकाश से प्रकाशित उस ( नायिका ) का हृदय, अपने प्रियतम के पास रहने पर, वृद्धि को प्राप्त अतिशय प्रेम के कारण विक्षिप्त जैसा दिखाई दिया।
अव्वोछिण्णपसरिओ अहि उद्धाइ फुरिअसूरच्छाओ। उच्छाहो सुहडाणं विसमक्खलिओ महाणईणं सोत्तो॥
(स० कं ४, ५२, सेतुबंध ३, १७) महानदियों के प्रवाह की भाँति विषम संकट में स्खलित (प्रवाह के पक्ष में विषम भूमि पर स्खलित), अव्यवच्छिन्न रूप से फैलने वाला और शूरवीरों की मुखश्री बढ़ाने वाला (प्रवाह के पक्ष में सूर्य की छाया के प्रतिबिम्ब से युक्त ) ऐसा सुभटों का उत्साह अधिकाधिक तीव्रता से अग्रसर होता है।
अन्वो दुकरआरअ ! पुणो वि तत्ति करेसि गमणस्स । अज्ज वि ण होंति सरला वेणीअ तरंगिणो चिउरा ॥
(सं० के० ५, २९१; गा० स० ३, ७३) हे निर्दयी ! अभी तो मेरी वेणी के केश भी सीधे नहीं हुए. और तू फिर से जाने की बात करने लगा। __असईण णमो ताणं दप्पणसरिसेसु जाण हिअएतु ।
जो ठाइ पुरओ सहसा सोचेअ संकमइ ॥ (शृङ्गार ४२, २०७) १. मिलाइये-तू रहि होही ससि लखौ चढ़ि न अटा बलि बाल । सबहिनु बिनु ही ससि लखें देहैं अरघ अकाल ।
(बिहारीसतसई २८४) २. मिलाइये-अज्यों न आये सहज रंग विरह दूबरे गात। . .. ... अबही कहा चलाइयत ललन चलन की बात ।।
(बिहारीसतसई ६)