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७०६ प्राकृत साहित्य का इतिहास
अजाए पहारो णवलदाए दिण्णो पिएण थणवट्टे । मिउओ वि दूसहो विअ जाओ हिअए सवत्तीणम् ॥
(ध्वन्या० उ०१, पृ०७५) प्रियतम ने अपनी प्रेयसी के स्तनों पर नई लता द्वारा जो प्रहार किया, वह कोमल होते हुए भी सौतों के हृदय को असह्य हो उठा। (लक्षणा का उदाहरण)
अणुणिअखणलद्धसुहे पुणोवि सम्भरिअमण्णुदूमिअविहले। हिअए माणवईगं चिरेण पणअगरुओ पसम्मई रोसो॥
(स०के०५, २७७) मनुहार के कारण क्षण भर के लिए सुख को प्राप्त और स्मरण किए हुए क्रोध के कारण विह्वल ऐसी मानवती नायिकाओं के हृदय का प्रणयजन्य गंभीर रोष बहुत देर में शांत होता है।
अणुमरणपत्थिआए पञ्चागअजीविए पिअअमम्मि । वेहव्वमंडणं कुलवहूअ सोहग्गरं जाअम् ॥
(स० के०५, २७५; गा० स०७, ३३) कोई कुलबधू अपने पति के मर जाने पर सती होने जा रही थी कि इतने में उसका प्रियतम जी उठा। (ऐसे समय ) उसने जो वैधव्यसचक अलंकार धारण किये थे वे सौभाग्यसूचक हो गये।
अण्णत्थ वच्च बालय ! पहायंतिं कीस मं पुलोएसि । एयं भो जायाभीरुयाणत्तहं चिय न होइ ।।
(काव्यानु० पृ० ८५,८५) हे नादान ! स्नान करती हुई मुझे तू क्यों देख रहा है ? यहाँ से चला जा। जो अपनी पत्नी से डरते हैं उनके लिए यह स्थान नहीं ( ईर्ष्या के कारण प्रच्छन्नकामिनी की यह उक्ति है)।
अण्णमहिलापसंगं दे देव ! करेसु अम्ह दइअस्स। पुरिसा एकन्तरसा ण हु दोसगुणे विआणन्ति ॥
(स०कं०५,३८८ गा०स०१,४८) हे देव ! हमारे प्रियतम को अन्य महिलाओं का भी साथ हो, क्योंकि एकनिष्ठ पुरुष त्रियों के गुण-दोषों को नहीं समझ पाते। .
(परभाग अलंकार का उदाहरण) अण्णह ण तीरइ चिअ परिवड्ढंतअगरुअसंतावम् । मरणविणोएण विणा विरमावेडं विरहदुक्खम् ॥
(सं०के०५,३४२, गा०स०४,४९) (प्रियतम के) विरह का दुख दिन प्रतिदिन बढ़ता हुआ घोर संताप उत्पन्न करता है; मरण-क्रीड़ा के बिना उसे शान्त करने का और कोई उपाय नहीं।
अण्णुअ ! णाहं कुविआ, उवऊहसु, किं मुहा पसाएमि । तुह मण्णुसमुप्पण्णेण मज्झ माणेण वि ण कज्जम् ।।
(सक०५, २४८)